स्किल डेवलपमेंट – क्या खोया क्या पाया

 

विगत आठ – नौ वर्षों से सरकार ने जोर – शोर से स्किल डेवलपमेंट के प्रचार प्रसार में करोड़ों रुपये खर्च कर दिए.  प्रचार किया गया कि भारतीय श्रमिकों में गुणवत्ता का अभाव है अतः उनमें श्रम कौशल का विकास करना पड़ेगा. विगत वर्षों में इसके अपेक्षाकृत सफल परिणाम न मिल पाने के कारण शासन अब तक इसकी कई आवृत्तियाँ प्रस्तुत कर चुका है. अब समय आ गया है कि इस योजना के गुण दोषों की विस्तार में विवेचना हो तथा इसके परोक्ष व अपरोक्ष लाभ – हानि के आधार पर इसे जारी रखने का निर्णय लिया जाए.

कौशल विकास योजना – आई टी आई या कौशल विकास

कौशल विकास योजना मूल रुप से उन छात्रों के लिये लाई गई जिनका तकनीकी या पेशेगत शिक्षा में रुझान हो.  प्रश्न है कि ऐसे छात्रों के लिये वर्षों से आई टी आई का माध्यम उपलब्ध था. पुराने शैक्षणिक प्रावधानों में एक पंचस्तरीय व्यवस्था थी. १२वीं कक्षा से कम शिक्षितों के लिए आई टी आई, इंटरमीडिएट पास छात्रों के लिए डिप्लोमा, यदि आगे भी अध्ययन की इच्छा हो तो इंजीनियरिंग कालेज, उससे भी बेहतर शिक्षा के लिए रीजनल इंजीनियरिंग कालेज व सर्वोत्कृष्ट तकनीकी शिक्षा के लिए आई आई टी पहले से ही उपलब्ध हैं.  मेरा मानना है कि इस प्रकार की योजनाओं को अमल में लाने के प्रयास से मूल शिक्षा ढांचे पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है जिसे बचाया जाना चाहिए. अपनी शिक्षा व्यवस्था पर संदेह करना कोई बुद्धिमत्ता की बात नहीें है.

यदि उद्योगों की शिकायत थी तो इसे विकसित और विस्तारित किया जाना चाहिए था. लेकिन  इससे मोदी सरकार को सेहरा अपने सिर बांधने का अवसर न मिलता.  चाहे गलत कारणों से ही सही, इतिहास में अपना नाम  लिखवाने की भूख के कारण  आई टी आई की शिक्षा को एक नए नाम दिया गया.  इसका संस्करण १ मूलतः आई टी आई ही था जिसमें कालांतर में संस्करण २, ३ व ४ में कई अन्य विधाओं का जुड़ाव हुआ जो मूलतः आई टी आई के अंतर्गत भी हो सकता था। योजना के विफल होने के अनेक कारण हो सकते है। लगता है सरकार ने विरासत के नाम पर अंधाधुंध पैसा खर्च किया.

स्किल डेवलपमेंट – असफल शिक्षा प्रबंधन की प्रयोगशाला

बिना मजबूत नींव के एक सुरक्षित इमारत की कल्पना व्यर्थ है. प्राथमिक शिक्षा उसी नींव के समान है.  प्रश्न यह है कि शिक्षा के उत्थान के लिए अब तक क्या किया गया. शाला में शिक्षकों को एक बंधुआ मजदूर की भांति प्रयोग में लाया गया. सारा ध्यान धर्म, इतिहास के दृष्टिकोणों पर लगाया गया वैज्ञानिक अनुसंधान व विकास के दृष्टिकोण के सिवाय. ऐसे में वैज्ञानिक विस्तार की अपेक्षा व्यर्थ है.  यूपीए सरकार ने बिना किसी प्रचार के सन २००५ में पहले दो संस्थानों के प्रस्ताव को पारित कर अपने संजीदा होने का संकेत दे दिया था.  २०१० तक यह संख्या ७ कर दी गई जो किसी भी राष्ट्र के प्रगतिशील होने का परिचायक है.  कौशल विकास का नाम दे कर इसे प्रचार का माध्यम बनाना उपयुक्त नहीं है.

स्किल डेवलपमेंट – टेक्नीशियनों का आगमन अनुसंधानकर्ताओं का प्रस्थान

किसी देश की सामर्थ्य में उसके वैज्ञानिकों द्वारा किये गये शोध कार्य का बड़ा योदगान होता है.  शासन द्वारा उच्च शिक्षा को निजी हाथों में सौपने से जहां एक ओर शिक्षा व्यय में गुणात्मक वृद्धि हुई है वहीं यह  शिक्षा गरीब किन्तु मेधावी छात्रों की पहुंच से दूर हो गई है, जिसका सीधा असर शोध कार्यों पर पड़ता है. आवश्यकता है कि सरकार इन मूल वैज्ञानिक शोधकार्यों को प्रभावी रूप से प्रायोजित करे तथा शिक्षा के निजीकरण के स्थान पर इन शोध कार्यौ के प्रायोजन में निजी भागीदारी सुनिश्चित करे, जो देश को सक्षम करने में सहायक हो.  जिस कौशल की उद्योगों को तलाश है उसे माध्यमिक शिक्षा में शामिल किया जाना चाहिए. हर विद्यालय में विद्यार्थियों के लिये एक कैरियर गाइडेंस अध्यापक हो जो विद्यार्थियों की कुशलता व मेधा के अनुरूप उन्हें मार्ग दर्शन दे.

सर्टिफिकेशन मापन का अभाव – कौशल का घटता प्रभाव

कौशल विकास की इस महत्वाकांक्षी योजना के असफल होने के कई कारणों में एक टेक्नीशियनों की न्यूनतम योग्यता का पालन न करा पाना है. उदाहरणार्थ एक प्लंबर के लिये कोई न्यूनतम योग्यता नहीं है. इसी तरह इलेक्ट्रीशियन के लिये जहां वायरमेन लाइसेंस की योग्यता निर्धारित है वहीं इसके प्रभावी पालन का सर्वथा अभाव है. यही कारण है कि देश में अधिकांश टेकनीशियन अकुशल की श्रेणी में है.  कौशल विकास की ट्रेनिंग के बाद उन्हें इन्हीं अकुशल लोगों के समक्ष व्यवसाय की प्रतिस्पर्धा में उतरना पड़ता है फलतः उन्हैं यह कौशल विकास समय व्यर्थ करने के समान लगता है. योजना की विफलता का यह एक कारण संभव है.

अंत में भारत को एक समावेशी योजना की आवश्यकता है जो धर्म व इतिहास का सम्मान करे परन्तु प्रगति के लिये उसे मूल आधार न समझे. वेदों के वैज्ञानिक आधार का सम्मान करे परन्तु आज की वैज्ञानिक सीमाओं को मानते हुए जो संभव हो उसका विकास करे.  संभव है कि वैदिक साहित्य की मीमांसाओं को वास्तविकता में परिलक्षित करने में अभी और प्रयास की आवश्यकता हो परन्तु इसके लिये वर्तमान की निंदा की आवश्यकता नहीं है. आवश्यक है कि कौशल विकास योजना अथवा आईटीआई का व्यवसाय से सीधा व सार्थक संपर्क हो.

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