पिटती प्रथाएँ – अनैतिक इरादे – रुआँसा लोकतंत्र

भारत का संविधान – भारतीय लोकतंत्र की आत्मा

कितना भी अच्छा संविधान हो , मगर जो लोग इसे लागू कर रहे हैं वे अच्छे नहीं हैं, तो यह बुरा साबित होगा । और कितना भी बुरा संविधान हो , पर अगर इसे लागू करने वाले अच्छे हैं, तो यह अच्छा साबित होगा। – डॉ अम्बेडकर

डॉ अम्बेडकर एक युगदृष्टा नेता थे और कानून की संरचना करते करते उन्होंने यह जान लिया था कि कोई भी कानून सक्षम नहीं होगा यदि उसे अम्ल में लाने वालों की नीयत साफ नहीं होगी। जिस कानून का राज्य विगत ७० वर्षौं तक सुचारू रूप से चल रहा था, जहां सरकारें आईं और गईं, उस पर अचानक बदलने के वक्तव्य व प्रहार इस बात को इंगित करते हैं कि नीयत में कहीं कोई बदलाव है।

इतने वर्षों तक इस संविधान ने हर धर्म, जाति, संप्रदाय, भाषाई समूहों का संवर्धन व संवरण किया है और यदि समय के बदलाव के कारण किसी सुधार की आवश्यकता हुई तो उसे भी समाहित किया गया पर कभी भी इस संविधान को निरर्थक नहीं माना गया। विगत कुछ वर्षों से धन, धर्म और धांधली का जो मिश्रण राजनीति में आया है वह समाज व लोकतंत्र को पतन की राह पर अग्रसर कर रहा है।

लोकतंत्र को बचाने की जिम्मेदारी जिन पर थी आज उनका व्यवहार भी यदाकदा ही संविधान सम्मत प्रतीत होता है। संस्थाओं का निरंतर क्षरण ही संविधान को निरंतर क्षति पहुंचा रहा है। मूलतः मेरा मानना है कि संसद, चुनाव आयोग, न्याय व्यवस्था, प्रशासनिक सेवा, राज्यपाल व राष्ट्रपति, स्पीकर के पद पर बैठे व्यक्ति यदि यह ठान लें कि उनका व्यवहार संविधान की मूल आत्मा के अनुरूप होगा न कि उसमें लिखे शब्दों की अनुचित व्याख्या के अनुसार, तो यही संविधान एक आदर्श संविधान लगेगा। हम एक एक कर इसकी विवेचना कर यह देखेंगे कि किस तरह संविधान को नुकसान पहुंचाया गया है।

संसदीय व्यवस्था का आचरण – संविधान की आत्मा का दैनिक क्षरण

न्याय के बिना शांति नहीं हो सकती, न्याय निष्पक्षता के बिना नहीं हो सकता, निष्पक्षता विकास के बिना नहीं हो सकती, विकास लोकतंत्र के बिना नहीं हो सकता, लोकतंत्र संस्कृतियों और लोगों की पहचान और मूल्य का सम्मान किए बिना नहीं हो सकता। – अनाम

दुर्भाग्यवश, वर्तमान संसदीय व्यवस्था से जिनका मूल कार्य संविधान सम्मत कानून बनाना है उनकी छबि आज ऐसी बन गई है कि सामान्य जनता को उनसे यह अपेक्षा ही नहीं है। आज की तारीख में सांसद अपने आप को जनता का सेवक समझने के बजाय जनता का शासक समझते है और इसने उनके दिमाग में अहंकार भर दिया है। यह अहंकार ही राजनेताओं के चारित्रिक पतन का कारण है।

समस्संत माननीयों से क्षमा याचना सहित यहां यह कहने की घृस्टता कर रहा हूं कि संसदीय व्यवस्था में केवल सांसद ही नहीं अपितु राज्यपाल, लोकसभा, राज्यसभा, विधानसभा के अध्यक्ष व यहां तक महामहिम राष्ट्रपति जी भी सम्मिलित है। सदन के अध्यक्ष का निर्णय तो सदा से ही प्रश्नों के घेरे में रहा है। लगभग १५० सांसदों के निष्कासन के बाद बिल को पास करा लेना, टूटती राज्य सरकारों में राज्यपाल व सदन अध्यक्ष के निर्णय भी इसी श्रेणी के परिचायक हैं। कई बार महामहिम राष्ट्रपति जी भी इसमें सहयोग करते प्रतीत होते हैं। राष्ट्रपति जी द्वारा इलेक्टोरल बांड का अनुमोदन ऐसी ही श्रेणी में आता है जब वह बिना किसी विवेचना के सरकारी प्रस्ताव पर अपनी मोहर लगा देते है। यदि राष्ट्रपति जी विवेचना कर मोहर लगाते तो इलेक्टोरल बांड जैसा कानून कदापि न बनता।

सार्थक बहस का अभाव – गुंडागिरी का बढ़ता प्रभाव

भारत में लोकतंत्र के जन्म के समय हुई संविधान सभा की बहस इस बात की द्योतक हैं कि विचारों की भिन्नता के बावजूद एक दूसरे को सुनने, उनके तर्कों को सम्मान देते हुए एक सार्थक निष्कर्ष पर कैसे पहुँचा जा सकता है। संसदीय कार्यवाही के समय , बहस के स्तर में जिस तरह की गिरावटऔर बहस में व्यवधान में जिस तरह बढ़ोतरी देखने में आई है वह लोकतंत्र में आस्था की गिरावट का द्योतक है।

राज्यों की विधानसभाओं में जिस तरह की भाषा व यदा कदा शारीरिक प्रदर्शन के उदाहरण भी है। यह माननीयों की लोकतंत्र में घटती आस्था दर्शाती है। कर्नाटक की विधान सभा में सत्र के दौरान माननीयों द्वारा पॉर्न देखने की घटना गिरते स्तर का एक और अध्याय है।

माननीयों के ऊपर जिस तरह के आपराधिक मामले दर्ज है वह भी अभूतपूर्व है। वर्तमान संसद में ७६३ सांसदों में से ३०६ ने आपराधिक मामलों का खुलासा किया है तथा उसमें भी ३०६ ने गंभीर मामलों की स्वीकारोक्ति की है। विधानसभाओं में ४००१ विधायकों में ११३६ ने अपने विरुद्ध गंभीर आपराधिक मामलों की स्वीकारोक्ति इस बुराई की चहुंओर व्याप्त होने के संकेत देती है।

न्यायालय की देरी – निर्णय की हेराफेरी

कहते हैं ईश्वर के दरबार में देर है पर अंधेर नहीं और यहीं पर मानव संसार ईश्वरीय न्याय से भिन्न है। यहां देर भी है और हो सकता है कि अंधेर भी। निचले स्तर की न्याय व्यवस्था भली भाति भ्रष्टाचार ग्रस्त है और यह कैंसर अब धीरे धीरे उच्च स्तरीय न्याय व्यवस्था को भी अपनी जकड़ में ले रहा है। राहुल गांधी की दो वर्षों के कारावास की सजा, आम आदमी पार्टी के प्रतिनिधियों के कारावास जहां मात्र सबूत की तलाश में उन्हें महीनों बंद रखा तथा उच्च न्यायालय के निर्णय भी कई बार अविश्वसनीय से प्रतीत होते है। उच्चतम न्यायालय एक सामान्य व्यक्ति की पंहुच के बाहर हैं अतः अधिकांश सामान्य गण निचले स्तर के न्यायाधीशों के निर्णय पर ही संतोष व्यक्त करने को लाचार हैं। यहां पर उच्चतम न्यायालय के एक माननीय न्यायाधीश की यह टिप्पणी अत्यंत महत्वपूर्ण है कि गुजरात से बड़े अविश्वसनीय निर्णय आ रहे है।

पद प्रलोभन का असर – निर्दोषों पर संस्थाओं का बढ़ता कहर

आदर्श संसदीय परंपराओं के विनाश में पद प्रलोभन एक विकराल समस्या बन गई है।
ईडी के निदेशक पद के निरंतर सेवा विस्तार का मामला हो या न्यायाधीशों के सेवानिवृत्त होने के उपरांत पुनः सरकारों से अनुकम्पा नियुक्तियां उनके द्वारा दिए गए निर्णयों को प्रभावित करती साफ नजर आती प्रतीत हो रही हैं। गलत निर्णय व उनमें देरी प्रजातांत्रिक मूल्यों के ह्रास का एक मूल कारण है। विगत १० वर्षों में सरकार ने इसमें जो महारत हासिल की है वह बेमिसाल है। इस सरकार ने अनुकंपा नियुक्तियों के माध्यम से न्याय व्यवस्था का जो अस्त्रीकरण किया है उसने विपक्ष व आम जनता को भयभीत कर रखा है। यह भय आज असामयिक दल बदल का प्रमुख कारण है।

रीढ़ विहीन संस्थाओं का असर – बढ़ती तानाशाही का मंजर

भय के वातावरण ने संस्थाओं को रीढ़विहीन करने में अद्वितीय भूमिका निभाई है। ई सी आई, ई डी, आई टी व सी बी आई के व्यवहार से यह बात स्पस्ट हो जाती है। कांग्रेस के बैंक खातों को बंद करने, उन पर असमानुपाति टैक्स लादना इसी रीढ़ विहीन संस्था के एक प्रतिनिधि है। इसका एक और ज्वलंत उदाहरण चुनाव आयोग द्वारा प्रधान मंत्री के ऊपर कार्यवाही में विलंब व सूरत में जिस भांति निर्विरोध चुनाव की योजना को अंजाम दिया गया वह चुनाव आयोग के रीढ़ विहीन होने का ही साक्षी है। सरकार के दबाव में संस्थाओं द्वारा इस भांति की कार्रवाई सरकार को तानाशाही प्रवृति की ओर अग्रसर करती है। शासन पक्ष के प्रवक्ताओं द्वारा समय समय पर दिये वक्तव्य इस प्रवृत्ति के परिचायक हैं।

विगत में यदि संस्थाएं रीढ़ विहीन होतीं तो श्रीमती गांधी का चुनाव रद्द नहीं होता और अकेला यह उदाहरण यह साबित करने के लिए काफी है।

ऎसे माहौल में चरित्रवान लोगों की सतत आवश्यकता है परन्तु आज के वातावरण में विगत १० वर्षौ में ऐसे चरित्रवान राजनेताओं का शासकीय पक्ष में न केवल अभाव है अपितु उसकी तानाशाही प्रवृति बिना किसी लाग लपेट के स्पष्ट दिखती है।

भविष्य संविधान का – ताकत लोकतंत्र की

हमें निराश होने की आवश्यकता नहीं है। भारत का जनता के विवेक सदा से ही बहुत शांति से निर्णय लेने में सक्षम है और समय समय पर जनता ने यह प्रदर्शित भी किया है। १० वर्षों में सरकार ने इसका जो भी नुकसान किया है उसका उचित उत्तर देश की जनता देने को तत्पर है।

अभी लोकतंत्र में सिर्फ दरारें आई हैं, यह ढहा नहीं है। समय आ गया है कि ऐसी विघटनकारी शक्तियों को सत्ता से बेदखल कर उचित हाथों में शासन की बागडोर सौंपी जाय।

अंत में, आदरणीय श्री मैथिलीशरण शरण गुप्त जी के आशीष से व उनकी कविता पर आधारित

नर हो न निराश करो मन को
मतदान करो मतदान करो
निर्भय होकर मतदान करो
ये जन्म हुआ किस अर्थ अहो
हर पल संविधान की रक्षा में रहो
अब तो उपयुक्त करो मन को
मतदान करो मतदान करो।
सदा हाथ पर ध्यान धरो
मतदान करो मतदान करो।।

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