माननीय न्यायालय का फैसला – सांप भी मरा और लाठी भी नहीं टूटी
चुनाव आयोग की हठधर्मिता , जिसमें उन्होंने चुनाव संबंधी जानकारी न देने का निश्चय किया था जिस पर माननीय उच्चतम न्यायालय का फैसला भी आ गया। इसने कुछ को प्रसन्न किया वहीं अधिकांश को निराश भी किया। अंत तक कोई भी यहां तक कि माननीय न्यायालय भी यह समझ पाने में असमर्थ रहे कि समाज के व्यापक हित में सही फैसला क्या हो और क्या चुनाव आयोग द्वारा लिया यह निर्णय तर्कसंगत, न्यायसंगत व भारतीय संविधान के अनुरूप है। संभवतः इसीलिए उन्होंने इसपर कोई निर्णय देने के बजाय इसे नियमित बेंच के हवाले कर दिया जिससे सांप भी मर गया और लाठी भी नहीं टूटी।
न्याय की भारतीय परंपरा का क्षरण – हठधर्मिता का वरण
भारतवर्ष में निरपेक्ष न्याय का प्रचलन सदा से ही रहा है और ऐतिहासिक व पौराणिक रुप में इसके कई उदाहरण विद्यमान हैं। विक्रम और वेताल इसका एक अनुपम उदाहरण है जहाँ वेताल हर कहानी के अन्त में राजा से सवाल पूछता है और राजा को जवाब देने पर मजबूर कर मौनभंग कराता है और जैसे ही मौन भंग होता है वेताल वापस पेड़ पर लटक जाता है। राजा की न्यायप्रियता का उत्कृष्ट उदाहरण जिसने अपनी लाभ हानि की परवाह किए बगैर सत्य का साथ दिया। देश के हर स्तर के न्यायालय तथा चुनाव आयोग से आज ऐसे ही सत्य व्यवहार की अपेक्षा की जाती है।
ईवीएम के केस में चुनाव आयोग की हठधर्मिता से यह जाहिर है कि इस संस्था ने संविधान प्रदत्त अधिकारों का सदुपयोग नहीं किया है अपितु ली गई शपथ का भी सम्मान नहीं किया है। उच्चतम न्यायालय ने भी इस केस में आंखें मूंदकर इस को अनजाने ही बढ़ावा दिया है। माननीय न्यायाधीशों चुनाव आयोग की विश्वास की प्रार्थना को स्वीकार किया और जनता की शत प्रतिशत पारदर्शिता की प्रार्थना को तवज्जो नहीं दी। उनका यह निर्णय सामान्य जनमानस जो कि उनके जितना ज्ञानी व विवेकशील नहीं है, की समझ के परे है।
हठधर्मिता किसी की – दुष्परिणाम देश का
अंततः इसके परिणाम का यदि पूर्वानुमान लगाएं तो मेरे अनुसार इसके कुछ दुष्परिणाम अवश्य हो सकते है।
1. लोगों का न्याय व्यवस्था पर संभवतः विश्वास और कमजोर हो जाय।
2. लोकतंत्र पर अविश्वास बढ़ जाय।
3. लोकतंत्र पर अविश्वास की पराकाष्ठा की परिणिति जनता के गुस्से में भी हो सकती है जो कि देश की कानून व्यवस्था के लिए हानिप्रद भी हो सकता है।
4. न्याय व्यवस्था में विश्वास उठ जाने पर लोग कानून अपने हाथ में लेकर स्वयं ही सजा का निर्णय करने लगें। बुलडोजर न्याय इसका एक ज्वलंत उदाहरण है।
5. देश की इस अवस्था का दुश्मन फायदा ले ले और भारत की एकता व अखंडता खतरे में पड़ जाय।
कौन जाने है ये किसका लोभ – होगा संविधान के निर्माताओं को क्षोभ
संविधान निर्माताओं ने यही सोचकर चुनाव आयोग व न्यायाधीशों को पदेन सुरक्षा प्रदान की और उन्हें सिर्फ महाभियोग द्वारा ही हटाए जाने की व्यवस्था बनाई और उनसे न्यायसंगत जनहित के निर्णय तथा पारदर्शी शासन व्यवस्था देने और उन्हें राजा विक्रमादित्य की तरह निर्भीक रहने की अपेक्षा रखी। चुनाव व्यवस्था के कानून के नियम की सही व्याख्या को फिलहाल टालकर जो मौन स्वीकृति माननीयों ने दी है उसे देश का दुर्भाग्य ही कहा जायगा। पता नहीं चुनाव आयोग किन अज्ञात कारणों से एक पारदर्शी व्यवस्था अपनाने से दूरी बना रहा है। माननीय न्यायालयों के आदेश को मानना जनता का कर्तव्य है पर दिल से उसका सम्मान करना अब यह दिलों पर निर्भर है। मेरी परमात्मा से प्रार्थना है कि वह राष्ट्र के लोकतंत्र को चिरायु रखे।