किसान आंदोलन – एक आवश्यकता या एक छलावा
भारत का किसान आज इस बात के लिए आंदोलनरत है कि उसे उसके श्रम का उचित मूल्य मिलना चाहिए. कुछ लोगों का तर्क है कि किसान काफी अमीर हैं, मर्सिडीज में चलते है टैक्स नहीं देते इत्यादि अतः उनकी मांगें एक अंतर्राष्ट्रीय साजिश हैं. आज इस बात पर हमें गम्भीरता से विचार करने की आवश्यकता है।इस समस्या के कई और पहलू भी हैं जिसे कतई नजरअन्दाज नहीं किया जा सकता.
अर्थशास्त्र या समाजशास्त्र!! — प्राथमिकता किसकी
आज भी जनसंख्या के अनुसार किसानों की आबादी लगभग ७०% है. बहुधा यह प्रश्न उठाया जाता है कि देश के लिये एक मजबूत अर्थव्यवस्था प्राथमिकता है. कुछ हद तक यह तर्क सही भी हो सकता है, परन्तु एक स्वस्थ समाज का जीवित रहना उससे भी बड़ी प्राथमिकता है. सरकार की नीति मूलतः उद्योगपतियों के पक्ष में है और किसानों को उसकी उपेक्षा का शिकार होना पड़ रहा है. हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि मनुष्य को जीवित रहने के सबसे पहले कृषि उत्पादों की आवश्यकता होगी. उद्योग व टेक्नोलॉजी उसके पूरक व सहयोगी अवश्य हो सकते हैं पर उसकी जगह नहीं ले सकते. नट बोल्ट से पेट नहीं भरता. पेट अन्नदाता ही भरता है.
वैश्वीकरण — समाधान या समस्या
संभवतः प्रशासन की आवश्यकता पड़ने पर आयात की धारणा को रूस यूक्रेन युद्ध ने झुठला दिया है. यदि हम खाद्यान्नों में आत्मनिर्भर न होते तो विश्व ने जिस संकट का सामना किया उसका एक विकराल रूप हमें भी अवश्य देखना पड़ता. समय की मांग है बढ़ती जनसंख्या को ध्यान में रखते हुए खाद्यान्नों मैं आत्मनिर्भरता हर हाल में प्राथमिकता होनी चाहिए.
निरंतर कम होती कृषि योग्य भूमि – भारत के लिए शुभ संकेत या एक त्रासदी की शुरुआत
सरकारी आंकड़े बताते हैं कि २०१४ से निरंतर कृषि योग्य भूमि का क्षरण हो रहा है. बढ़ती आबादी के लिए यह कोई शुभ संकेत नहीं है. यह इस बात का संकेत है कि कृषि आज जीवनयापन का एक हानिकारक माध्यम है. यदि कृषक इसी तरह कृषि छोड़कर दूसरे व्यवसायों की ओर आकर्षित होते रहे तो भारत जैसे विशाल देश का हाल श्रीलंका जैसा होने में कोई देर न लगगी.
बढ़ती महंगाई और कृषि लागत
२०१४ में जहां डीजल कीमत लगभग ५८ ₹ होती थी वहीं अब यह लगभग १००₹ के आसपास है. खाद कीमत में भी उत्तरोत्तर वृद्धि हुई है. यूक्रेन युद्ध के कारण न केवल इनकी कीमतों में बढ़ोतरी हुई है अपितु इनकी सप्लाई भी प्रभावित हुई है. बढ़ती कृषि विद्युत की मांग यह संकेत दे रही है कि डीजल का प्रयोग घटा है. असमय बिजली सप्लाई के कारण उसे अपनी फसल को बचाने के लिये अतिरिक्त समय देने को विवश होना पड़ता है. ग्लोबल वार्मिंग के कारण उत्पन्न मौसम की अनिश्चितता इन पर दोहरी मार मारती है.
कृषि उद्योग व इसके सामाजिक प्रभाव
कृषि एक बहुत अधिक समय लेने वाला काम है. भारत की आबादी का ७० % किसान है और उसमें ९०% किसान छोटे भूखंड वाले हैं. परिवार को चलाने के लिये उन्हें काफी समय खेतों में देना पड़ता है जिसका कुप्रभाव उसके परिवार पड़ता है. बच्चों की शिक्षा , परिवार के स्वास्थ्य व गरीबी से लड़ते हुए चुकानी पड़ती है. छोटे किसानों की संतानें अक्सर उच्च शिक्षा से वंचित रह जाती हैं और अंततः वे गरीबी के कुचक्र फंसकर कई बार आत्महत्या तक को विवश हो जाते हैं.
अंत में
यह समाज के हित में है कि वह कृषि व्यवसाय को न केवल जीवित रखे अपितु बलिदान को वह सम्मान दे जिसके वह हकदार हैं. यूपीए व एनडीए की सरकारों के काम करने के तरीके में यह अंतर साफ दिखाई देता है. यूपीए की सरकार जहाँ इनके प्रति सजग व सहृदय थी वहीं वर्तमान सरकार संवेदनहीन तथा निष्ठुर दिखाई पड़ती है, जिसका उदाहरण किसानों के लम्बे चले आंदोलन , कई किसानों की मृत्यु व वार्ताओं का अनवरत चलना एक आडम्बर ही प्रतीत होता है. आंकड़े इस बात के साक्षी हैं. श्री राहुल गांधी का आश्वासन इस दिशा में आशा की एक किरण है.
आवश्यकता है कि कृषि को एक ऐसे व्यवसाय के रूप में जीवित रखा जाए, जो यदि बहुत आकर्षक न हो तो भी परिवार का प्राण रक्षक तो अवश्य हो ही, अन्यथा भारत श्रीलंका या अफगानिस्तान की राह पर चल निकलेगा.