गोडसे अब भी जिंदा है…उसके निशाने पर हैं लोकतंत्र, संविधान और आरक्षण..

 

गोडसे अब भी जिंदा है..

 30 जनवरी, 1948. शाम 5 बज कर 17 मिनट, महात्मा गांधी बिरला हॉउस से निकल कर प्रार्थना सभा की ओर बढ़ रहे थे, साथ में उनकी भतीजियां आभा और मनु थी. खाकी कपड़ों में  उनकेे पैर छूने का अभिनय करते हुए नाथूराम करीब आ रहा था. आभा ने रोकने की कोशिश की, लेकिन गोडसे ने उन्हें धक्का दे दिया. आभा के हाथ से गांधीजी की नोटबुक,थूकदान और उनकी माला ज़मीन पर आ गिरी. तब तक गोडसे ने अपनी बेरेटा पिस्तोल निकाल कर बापू पर प्वॉइंट ब्लैंक रेंज से लगातार तीन फायर किए, एक गोली सीने में लगी, दो पेट में, ज़मीन पर गिर पड़े महात्मा और मुंह से निकला “हे राम”

खून से भीगी उनकी धोती में मनु को गांधी की इंगरसोल घड़ी दिखाई दी. उसमें दर्ज वक्त था- 5 बज कर 17 मिनट

वक्त भर बदला है, बाकी कुछ भी तो नहीं बदला. आज भी कुछ लोग बापू की जयंती पर पिस्तौल से गांधी पर गोली चलाते हैं, तब भी अभिनय हुआ था. अब भी उनको दिल से माफ ना करने का अभिनय होता है.

 वो जिस संसद में घुसते वक्त ज़मीन को माथे से लगाता है. उस इमारत को इतिहास बना दिया जाता है. एक राजदरबारनुमा नया संसद भवन बनाया जाता है.

संसद और संसदीय लोकतंत्र की अवहेलना- 

ये नई संसद कागज़ पर लोकतंत्र औऱ व्यवहार के स्तर पर राजतंत्र के प्रतीक संगोल पर आधारित होती है. इसी संसद में संसदीय मूल्यों का खुलेआम वध होता है. 

एक सांसद को धर्मसूचक अपशब्द कहे जाते हैं. सत्ता पक्ष के मंत्री और राजदरबारी खी-खी-खी-खी कर हंसे जाते हैं.

विपक्ष जब भी अपनी बात उठाता है तो उसे मर्यादा और लोकतंत्र का पाठ पढ़ाया जाता है या फिर डपट दिया जाता है. 

संसदीय प्रक्रिया की अवमानना-

यही हाल संसदीय प्रक्रिया के साथ होता है.

पुरानी संसद में किसान विरोधी कानून विपक्ष की वोटिंग की मांग को नज़रअंदाज कर पारित करा लिए गए थे. 

सो, इस बार 22-25 बड़े अरबपतियों के हित में कानूनों को पारित कराने के लिए विपक्ष के 145 सांसदों को ही निलंबित कर दिया गया.

और बगैर बहस कानूनों को पारित करा लिया गया.

मनी बिल की आड़ में जनहित से जुड़े विधेयक पारित करा लिए गए, जिनमें –

एक है  निजता से जुड़ा आधार बिल, जिस पर सुप्रीम कोर्ट की सात सदस्यीय बेंच ने सही ठहराया, लेकिन उसी बेंच में शामिल वर्तमान मुख्य न्यायधीश डी वाई चंद्रचूड़ ने असंवैधानिक माना था.

इसी तरह देश के करोड़ों छोटी-छोटी बचत के पैसे से खड़े हुए  एलआईसी के आईपीओ से जारी करने से जुड़ा विधेयक, जिसके बाद एलआईसी ने अडानी समूह में निवेश किया.

इसी तरह मनीलांड्रिंग बिल, जिससे प्रवर्तन निदेशालय ( ED) को बिना कारण बताए गिरफ्तारी, तलाशी औऱ संपत्ति की कुर्की से संबधित असीमित अधिकार दिए गए.

देश के कानून में किसी भी  आरोपी को निर्दोष मान कर उस पर आरोप सिद्ध करने की जिम्मेदारी अभियोजन पक्ष की होती है, लेकिन, इसके तहत आरोपी से खुद को बेकसूर साबित करने का जिम्मा दिया गया है.

मनी लांड्रिंग कानून का दुरुपयोग कर 2024 के आम चुनाव के इंडिया गठबंधन के दो मुख्यमंत्रियों को गिरफ्तार कर लिया गया. 

मोदीराज में जमानत नियम और जेल अपवाद के सिद्धांत को उलट कर नागरिक स्वतंत्रता का हनन किया जा रहा है.

राष्ट्रपति- 

खत्म कर दी गई है राष्ट्रपति पद की गरिमा…

भारतीय गणराज्य के कार्यपालक अध्यक्ष के रूप में राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू की गरिमा को अकसर कम करने का कोई मौका नहीं छोड़ते प्रधानमंत्री मोदी.

पूर्व उप प्रधानमंत्री लाल कृष्ण अडवाणी को भारत रत्न पदान करने उनके निवास पहुंची महामिहम मुर्मू  अडवाणी को अलंकृत कर सामने खड़ी थी, तब पीएम मोदी कुर्सी के मोह में बैठे रहे औऱ ताली बजाते रहे.

इसे मोदी की मासूमियत तो कम से कम नहीं माना जा सकता.

न्यायपालिका-

न्याय पालिका के मामले में भी पीएम मोदी का वही रूप-स्वरूप दिखा. न्यायपालिका के रक्षक का ढोंग करते हुए उन्होंने उसकी अवमानना में कभी कोई कसर नहीं छोड़ी.

मौका मिलते ही पीएम मोदी सुप्रीम कोर्ट को ज्ञान देने का कोई मौका भी नहीं छोड़ते.

इलेक्टोरल बांड पर सुप्रीम कोर्ट पर दबाव बनाने की कोशिश

देश में पहले प्रधानमंत्री हैं नरेंद्र मोदी, जिनके इलेक्टोरल बांड के जरिए दुनिया के सबसे बड़े वसूली रैकेट की जानकारी छुपाने पर स्टेट बैंक ऑफ इंडिया फटकार को सुप्रीम कोर्ट ने फटकारलगाई थी, तब जा कर जनता के सामने चंदा दो-धंधा लो की हकीकत सामने आई थी.

 पीएम मोदी इसके बाद सुप्रीम कोर्ट को ही दबाव में लेने की कोशिश में जुट गए. बीजेपी समर्थक वकीलों ने सुप्रीम कोर्ट पर ये कह कर दबाव बनाने की कोशिश की, कि अदालत वकीलों के एक समूह के दबाव में काम कर रहा है. इसके तुरंत बाद पीएम मोदी ने इस पत्र को रिट्वीट करते हुए उल्टे कांग्रेस पर ही डराने-धमकाने की संस्कृति का आरोप जड़ दिया.

इलेक्टोरल बांड को असंवैधानिक घोषित किए जाने के बावजूद पीएम मोदी इलेक्टोरल बांड का विरोध करने वालों को पछताने की धमकी दे कर अब भी सुप्रीम कोर्ट की लगातार अवमानना कर रहे हैं. 

पूर्व न्यायधीशों को बीजेपी में शामिल करना-

ये संयोग नहीं प्रयोग है कि जिन न्यायधीशों ने मोदी सरकार के पक्ष में फैसले दिए, उन्हें बीजेपी में शामिल कर लिया गया.  राज्यसभा में भेज दिया गया या टिकट दे दिया गया या फिर सेवानिवृत्त होने पर सरकार के किसी बड़े पद पर तैनात कर दिया गया. 

कोलकाता हाईकोर्ट के जज रहे अभिजीत गांगुली ने तो हद ही कर दी. मोदी सरकार के पक्ष में फैसले देने के लिए मशहूर जस्टिस गांगुली सेवानिवृत्ति से पहले ही बीजेपी शामिल हो गए. पीएम मोदी से जिस तरह वो कृतज्ञता जता रहे थे, वो तस्वीर न्यायपालिका पर सबसे बड़ा धब्बा है.

इससे पहले भारत के पूर्व मुख्य न्यायधीश रंजन गोगोई को बीजेपी ने राज्यसभा भेजा. गोगोई मोदी शासन काल में न्यायपालिका की स्वतंत्रता का हनन को लेकर प्रेस कांफ्रेंस करने वाले चार न्यायधीशों में से एक थे. आगे आप खुद समझदार है.

नरेंद्र मोदी ने प्रधानमंत्री बनते ही सबसे पहले राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग कानून बना कर न्यायपालिका की नाक में नकेल डालने की कोशिश की थी.

इस कानून के जरिए मोदी सरकार न्यायधीशों की नियुक्ति अपने हाथ में लेना चाहती थी.  इस कोशिश को सुप्रीम कोर्ट ने नाकाम कर दिया था.

कार्यपालिका

कहना न होगा कि देश की सभी संवैधानिक संंस्थाओं और केंद्रीय एजेंसियों को मोदी ने अपना राजनीतिक हथियार बना लिया . 

चुनाव आयोग,सीबीआई, ईडी, औऱ इंकम टैक्स विभाग बीजेपी-आरएसएस के अनुषांगिक संगठनों के रूप में काम कर रहे हैं.

चुनाव आयोग 

मोदी के वैमनस्य और सांप्रदायिक घृणा फैलाने वाले भाषणों को लेकर कम से कम बीस हज़ार नागरिकों ने चुनाव आयोग को शिकायत भेजी थी. साथ ही कांग्रेस समेत इंडिया गठबंधन के सभी सहयोगी दलों ने बार-बार आय़ोग से संज्ञान लेने का अनुरोध किया था. आखिरकार चुनाव आयोग पीएम मोदी को क्लीन चिट दे कर बता दिया है कि वो एक कठपुतली भर हैं.

राम का व्यौपारी जीत गया. राम का पुजारी फिर एक बार मारा गया.

इंडिया गठबंधन ने कम से कम 11 बार चुनाव आयोग से ईवीएम-वीवीपैट से जुड़ी शंकाओं को लेकर मुलाकात का समय मांगा. लेकिन चुनाव आय़ोग ने इसे गैर जरूरी समझा और पत्र के जवाब में लिखा कि वेबसाइट पर आपकी सभी शंकाओं से जुड़े जवाब उपलब्ध हैं. इंडिया गठबंधन ने सभी वीवीपैट पर्चियों को अलग बैलेेट बॉक्स में डालने की अनुमति और इन पर्चियों की  गिनती की मांग की थी. लेकिन चुनाव आय़ोग विपक्ष की बात सुनने तक को तैयार नहीं है.

जनता से मताधिकार छीनने को लेकर भी चुनाव आयोग कठघरे में हैं.

इंडिया गठबंधन के प्रत्याशी का नांमांकन पत्र खारिज कर बीजेपी को दूसरे उम्मीदवारों से पर्चा वापिस  लेने का दबाव बनाने के लिए मौका दे रहा है.  जबकि मतदान एक नागरिक का मूलाधिकार है. उसे अपना प्रतिनिधि चुनने का मौका मिलना चाहिए.

मोदी सरकार ने कानून बना कर मुख्य चुनाव आयुक्त की नियुक्ति समिति से भारत के मुख्य न्यायधीश को बाहर कर दिया.

तीन सदस्यों की समिति में प्रधानमंत्री औऱ केंद्रीय मंत्री के अलावा नेता प्रतिपक्ष को शामिल किया गया है. जाहिर है किअपने बहुमत के बल पर मोदी सरकार चुनाव आयोग को कठपुतली बना कर रखना चाहती है. और आयोग भी कर भी रहा है- एक कठपुतली की तरह काम.

मीडिया-

 देश में 22-25 बिजनेस घरानों के लिए काम कर रहे  पीएम मोदी के लिए देश के ज्यादातर राष्ट्रीय मीडिया संस्थान प्रचार एजेंसियों के तौर पर काम कर रहे है.

यही नहीं, इन संस्थानों ने बीजेपी के पक्ष में और कांग्रेस- इंडिया गठबंधन के खिलाफ फेक न्यूज़ प्रसारित करने और जनता में भाईचारा और एकता को तोड़ने के लिए पिछले दस साल से जी-जान से कोशिश की है. 2024 के आम चुनाव के दौरान भी इनमें से बहुत से मीडिया हॉउसेज़ को बीजेपी आईटी सेल का हिस्सा माना जा रहा है

वहीं स्वतंत्र निष्पक्ष मीडियाकर्मियों के यूट्यूब चैनल बंद कराए जा रहे हैं. या फिर वेबसाइट चला रहे तटस्थ पत्रकारों को लंबे वक्त के लिए जेल में डाल दिया गया है.

मूलाधिकार-

मोदी सरकार ने दिसंबर,2023 को भारतीय दंड संहिता (आईपीसी) 1860, दंड प्रक्रिया संहिता (सीआरपीसी) 1973 और भारतीय साक्ष्य अधिनियम (एविडेंस एक्ट), 1872 में बड़े बदलाव कर नागरिक अधिकारों के हनन को सुनिश्चित किया है.

प्रावधानों में बदलाव कर पुलिस हिरासत में रखने की समय सीमा 60 से 90 दिन कर दी गई है. 

राजद्रोह कानून को सुप्रीम कोर्ट से खत्म किए जाने के बाद देश की संप्रभुता, एकता और अखंडता की रक्षा” करने के लिए लाए कानून में आर्थिक के साथ-साथ आतंकवाद का दायरा बढ़ा दिया गया है

एक जुलाई में इसके लागू होने के बाद इसके इस्तेमाल से विरोधियों के दमन का खतरा बढ़ गया है.

तीनों आपराधिक कानून पर बहस से बचने के लिए मोदी सरकार ने विपक्ष के 145 सांसदों का निलंबन कर इस विधेयक को पारित करवाया था.

पीएमएलए कानून का इस्तेमाल भी नागरिक अधिकारों के दमन के लिए किया जा रहा है.

हाल ही में बगैर मुकदमा जेल में रखने पर सुप्रीम कोर्ट ने ईडी को फटकार भी लगाई थी.

डेटा सुरक्षा संबंधी कानून के जरिए भी निजता के अधिकार से आम लोगों को राष्ट्रीय सुरक्षा, एकता,अखंडता के नाम पर वंचित किया जा सकता है. 

आपराधिक प्रक्रिया (पहचान) कानून के तहत किसी भी गिरफ्तार व्यक्ति का डेटा हासिल करने का अधिकार सरकार के पास आ गया है.

वित्त विधेयक के जरिए चोर दरवाजे से या फिर विपक्ष के सांसदों को निलंबित करके जनविरोधी कानून पास कराए गए.

व्याव्हारिक तौर पर नागरिक स्वतंत्रता के लिए संघर्ष कर रहे सामाजिक कार्यकर्ताओं, पत्रकारों, बुद्धिजीवियों की गिरफ्तारी, लंबे समय तक जमानत का विरोध, हमले और हत्याएं आम बात होती जा रही है. 180 देशों के प्रेस फ्रीडम इंडेक्स में भारत 161वे स्थान पर है. दो दिन पहले ही ऑस्ट्रेलिया ब्रॉडकास्टिंग की पत्रकार को भारत में वीज़ा अवधि बढ़ाने से इंकार कर दिया गया है.

संविधान का बुनियादी ढांचा-

इतिहास उठा कर देख लीजिए कि आरएसएस-बीजेपी को अव्वल तो भारतीय संविधान शुरू से ही अस्वीकार रहा है.  वहीं, मोदी सरकार ने आते ही संविधान के बुनियादी ढांचे में बदलाव की बहस शुरू करवा दी.

प्रधानमंत्री मोदी के आर्थिक सलाहकार बिबेक डेबरॉय ने इसे औपनिवेशिक विरासत बता कर बदलाव की हिमायत की थी. लेकिन विरोध होनेे पर निजी विचार बता कर पीछे हट गए थे. लेकिन पूर्व मुख्य न्यायधीश रंजन गोगोई ने संसद में अपने पहले ही भाषण में बुनियादी ढांचे में बदलाव की संभावना को  बल दिया.

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रमुख मोहन भागवत ने भी 2017 में संविधान में बदलाव पर जोर देते हुए कहा कि भारतीय संविधान में बदलाव कर उसे भारतीय समाज के नैतिक मूल्यों के अनुरूप किया जाना चाहिए.

समझा जा सकता कि संघ प्रमुख हिंदुत्व के नज़रिए से भारतीयता की बात कर रहे है और किस नैतिक मूल्यों की बात कर रहे हैं.

प्रस्तावना- 

आरएसएस-बीजेपी को संंविधान की प्रस्तावना में जोड़े गए “समाजवादी” और “धर्मनिरपेक्ष” शब्द से ज़बर्दस्त विरोध है.

कई-कई बार इन शब्दों को संविधान से हटाने के लिए सुप्रीम कोर्ट के सामने याचिकाए दायर की जाती रही हैं.  2020 में बीजेपी सांसद राकेश सिन्हा और 2021 में बीजेपी सांसद के जे अल्फांस ने निजी विधेयक पेश कर “समाजवादी” शब्द हटाने की मांग की थी. मोदी सरकार देश की कल्याणकारी योजनाओं से हाथ धो लेना चाहती है.

अडानी को देश की अकूत संपदा देने की मोदी सरकार की नीति से भी साफ है कि ये अडानी का हित साधने वाली अडानियों की सरकार है, हिंदुस्तानियों की सरकार नहीं.  

इसीलिए “समाजवादी” शब्द से आरएसएस-बीजेपी और पीएम मोदी को तकलीफ हैै

“धर्मनिरपेक्ष” शब्द भी बीजेपी-आरएसएस की आंखों में चुभता है.

नए संसद भवन के उद्घाटन में पूजा यज्ञ करवाना और देशवासियों के दूसरे धर्मो की पद्धति से पूजा न करवाना, हर मौके-बेमौके भारत को हिदू-प्रधान राष्ट्र की तरह पेश करना बताता है कि धर्म निरपेक्षता मोदी सरकार को शब्दों के अलावा कहीं स्वीकार्य नहीं है.

2015 में सूचना प्रसारण मंत्रालय नेे अपने विज्ञापन में संंविधान की प्रस्तावना की उस प्रति का इस्तेमाल किया, जिसमें ये दोनों शब्द नहीं थे.

अगर ध्यान से देखा जाए तो मोदी सरकार की कार्यशैली  प्रस्तावना में शामिल स्वतंत्रता, समानता औऱ बंधुत्व के आधारभूत मूल्यों के एकदम उलट है.

समानता के सिद्धांत के तहत गरीब, पिछड़े,दलित और आदिवासियों के लिए समान अवसर के लिए राहुल गांधी हिस्सेदारी न्याय का मुद्दा उठा रहे हैं, तो मोदी मंगलसूत्र, संपत्ति बांटे जाने का डर दिखा रहे हैं.

आरएसएस-बीजेपी जानती है कि पिछड़े-दलित-आदिवासी वर्ग को बराबर का अवसर देने से मनुसंहिता आधारित हिंदुत्व की धारणा कमज़ोर होगी. लिहाजा सत्ता पाने के लिए हिंदू-मुसलमान किया जा रहा है.

हिंदुत्व की आड़ में संघ का अंतिम उद्येश्य आरक्षण को हमेशा-हमेशा के लिए समाप्त कर देना है.

पिछले दस साल से आरक्षण व्यवस्था को कमज़ोर करने के लिए तीस लाख सरकारी पद खाली रखे गए हैं. काबिल उम्मीदवार के नाम पर आरक्षित कोटे को जनरल के प्रत्याशियों से भरा जा रहा है. साथ ही लेटरल एंट्री से संघ-बीजेपी और हिंदुत्ववादी संगठनों को प्रशासन में ऊंचे पदों पर रखा जा रहा है. वहीं, शिक्षा, समेत कई विभागों में नियुक्त किया जा रहा है, ताकि वो सिस्टम के भीतर से संघ के उद्येश्यों की पूर्ति कर सकें. 

सुप्रीम कोर्ट की तेरह न्यायधीशों की खंडपीठ ने 1973 में ये स्पष्ट कर दिया था कि संविधान के मूल ढांचे में बदलाव नहीं हो सकता.

बीजेपी और आरएसएस इसीलिए संविधान को बदलने के तरीके तलाशने में जुटे हैं.

संघवाद-

आरएसएस औऱ बीजेपी भारत को राज्यों का महासंघ मानने के बजाय एक राष्ट्र, एक पंथ,एक प्रधान,एक चुनाव,एक भाषा, एक विधान के सिद्धांत का प्रचार करते हैं.

जबकि संविधान में ये साफ है कि भारत राज्यों का एक महासंघ है.  जिसमें केंद्र और राज्यों के बीच अधिकारों को शक्तियों को साझा करने का प्रावधान है. इनमें विधायी, प्रशासनिक और वित्तीय संबंधों को लेकर मोदी सरकार लगातार हस्तक्षेप करती रही है. 

विधायी स्तर पर संसदीय प्रक्रिया और शिक्षा व्यवस्था में दखलंदाजी के लिए राज्यपाल सबसे ज्यादा बदनाम मोदी शासनकाल में हुए हैं. 

सरकारें गिराने, विधायकों की खरीद-फरोख्त और विपक्षी सरकारों को काम ना करने देने में राज्यपालों का बेशर्मी की हद तक इस्तेमाल किया जा रहा है.

राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली सरकार संशोधन विधेयक जीता जागता उदाहरण हैं. जिसमें दिल्ली के चुने हुए मुख्यमंत्री के बजाय अधिकारियों के ट्रांसफर और पोस्टिंग से जुड़े अधिकार दिल्ली के उपराज्यपाल के पास होंगे. यहां भी मुख्य चुनाव आयुक्त की नियुक्ति की तरह मुख्यमंत्री मूक दर्शक होगा, क्योंकि दो नौकरशाहों को वीटो का अधिकार होगा.

प्रशासनिक स्तर पर केंद्रीय एजेंसियों की बढ़ती दखलंंदाजी देख कर कई राज्यों ने विरोध शुरू कर दिया है. वहीं राष्ट्रीय सुरक्षा के नाम पर नए कानूनी प्रावधानों के तहत मोदी सरकार राज्य सरकारों के कानून व्यवस्था संबंधी अधिकारों को कम करने की साजिश कर रही है. 

क देश, एक चुनाव , देश के संघवाद पर हमला है. आम चुनाव और राज्यों के चुनाव के मुद्दे अलग अलग होते हैं. और क्षेत्रीय पार्टियां क्षेत्रीय आकांक्षाओं का प्रतिनिधित्व करती हैं. लेकिन ये सिद्धांत छोटी पार्टियोंं और क्षेत्रीय पहचान के खिलाफ है.

रएसएस-बीजेपी संविधान को बदलने के लिए हर छल-छद्म, झूठ और अनैतिक तरीकों का इस्तेमाल कर रही है. 

गोडसे अब भी जिंदा है…

उसकी पिस्तौल में अब भी तीन गोलियां हैं…

       उसके निशाने पर लोकतंत्र, संविधान और आरक्षण है.

                                         उसके झूठ औऱ पाखंड को पहचानना ज़रूरी है…

—- क्योंकि ये देश को बचाने का आखिरी चुनाव हैै.

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