डिकोड करना क्यों ज़रूरी है मोहन भागवत का संदेश ?
राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के प्रमुख मोहन भागवत ने संघ के स्थापना दिवस पर नागपुर से दो तरह के संदेश दिए. मीडिया के लिए संदेश में देश की सांस्कृतिक-धार्मिक-भाषाई विविधता को स्वीकार किया. मोहन भागवत ने ये भी बताया संघ की शताब्दी वर्ष के साथ आरएसएस सभी जाति-वर्ग के बीच समरसता-सद्भावना, पर्यावरण,कुटुंब प्रबोधन, स्वदेशी और अनुशासन का संदेश लेकर घर-घर जाएगा.
लेकिन हाथी दांत की तरह इन संदेश के नीचे भागवत के भाषण में स्वयंसेवकों के लिए एक मंत्र-विप्लव के लिए तैयार रहने को कहा. भागवत की शब्दावली में देश में वैचारिक- बौद्धिक रूप से लड़ा जाने वाला विचारधारा का युद्ध ही मंत्र विप्लव है. भागवत कहते हैं कि देश में शिक्षा जगत, मीडिया और बौद्धिक जगत के जरिए समाज में विकृत विचारों का प्रचार किया जा रहा है, और सुनियोजित तरीके से छोटी-मोटी समस्याओं को लेकर असंतोष फैलाया जा रहा है.
दरअसल मोदी सरकार के पिछले दस सालों में देश के तमाम संसाधनों पर आरएसएस और अडानी ने सुनियोजित तरीके से कब्जा कर लिया है. सरकारी संसाधन संघ पर लुटाए जा रहे हैं. संघ को डर लग रहा है कि बैसाखी पर चलने वाली मोदी सरकार अगर धराशायी हो जाती हैै तो सत्ता की मलाई हमेशा के लिए बंद हो जाएगी और अस्तित्व केे लाले भी पड़ जाएंगे.
इसीलिए मोहन भागवत महाराष्ट्र चुनाव के मद्देनज़र अहिल्याबाई होल्कर के तीन सौवें जयंती वर्ष को लेकर प्रशस्ति गायन करते हैं, तो झारखंड विधानसभा चुनाव के मद्देनज़र आदिवासी संघर्ष के प्रतीक बिरसा मुंडा के डेढ़ सौ वर्ष पूरे होने के उपलक्ष्य में महिमा का बखान किया. लेकिन अपने भाषण में जल्द ही वे मुद्दे पर आ गए और उन्होंने देश में मानवाधिकार, समता-समानता-न्याय के लिए चल रहे संघर्षों पर निशाना साधा.
मोहन भागवत ने कहा कि देश में समस्याएं होती हैं, कई अन्याय चलते रहते हैं. इन सबको लेकर एक असंतोष उत्पन्न करना, संघर्ष उत्पन्न करना, टकराव की स्थिति उत्पन्न करना, लोगो को उग्र बनाना, कानून, व्यवस्था इन सबके प्रति अश्रद्धा,अनादर का व्यवहार सिखाना, इससे उस देश पर बाहर से वर्चस्व चलाना आसान होता है. यानि सरकार की जनविरोधी नीतियों, प्रशासनिक पक्षपात या निकम्मेपन के खिलाफ आवाज़ उठाना असंतोष पैदा करने का एक अंतर्राष्ट्रीय षड़यंत्र है, जिसे विदेशों से समर्थन मिल रहा है. भागवत का कहना है कि ये मंत्र विप्लव है.
संघ प्रमुख ने कहा कि इससे निपटने के लिए राष्ट्रीय स्तर पर नैरेटिव चलाया जाएगा. स्पष्ट है कि बिकाऊ मीडिया इस विमर्श को घर-घर पहुंंचाने का जिम्मा निभाएगा. वहीं प्रतिपक्ष की छवि धूमिल करने के लिए आरएसएस नियंत्रित मीडिया हर संभव प्रयास करेगा.
मोहन भागवत के संदेश को डिकोड करना इसलिए ज़रूरी है क्योंकि संघ के इशारे पर तमाम बुद्धिजीवी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और आरएसएस के बीच मतभेद को बढ़ा-चढ़ा कर पेश कर रहे हैं. जबकि सच्चाई ये है कि नरेंद्र मोदी एक स्वयंसेवक की तरह संघ के एजेंडे को साम-दाम-दंड और भेद का इस्तेमाल कर लगातार आगे बढ़ा रहे हैं.
नरेंद्र मोदी भी संघ प्रमुख की तरह दो तरह की बात करते हैं. संघ प्रमुख जहां नाम लिए बगैर गणेश विसर्जन की घटना के बहाने मुसलमानों को डराने की कोशिश कर रहे हैं, वहीं महाराष्ट्र की बीजेपी सरकार मदरसों के मौलवियों की तननख्वाह तीन गुना बढ़ा भी रही है. नरेंद्र मोदी भी कपड़ों से पहचानने की बात कर अल्पसंख्यकों केे दिलों में खौफ पैदा करने की कोशिश करते रहे हैं. संघ-बीजेपी का खेल जुगलबंदी से चल रहा है.
विविधता को स्वीकार करने का पाखंड करने के बावजूद बीजेपी-संघ भारत को राज्यों का संघ मानने के बजाय राष्ट्रवाद की बात कर सारी शक्तियां केंद्र में निहित रखने में विश्वास करता है. एक राष्ट्र,एक विधान, एक पंथ, एक प्रधान की अवधारणा में विविधता में एकता का कोई स्थान नहीं है.
संघ प्रमुख अपने भाषण की शुरुआत वसुधैव कुटुंबकम से करते हैं, लेकिन अगले ही वाक्य में हिंदुओं को बताते हैं कि दुर्बलता की वजह से वो अत्याचार का शिकार हर जगह, हर युग में होते रहे हैं. बांग्लादेश में वो भारत के प्रति फैलाई जा रही घृणा का हवाला दे कर हिंंदुओं को उकसाते हैं और बताते हैं कि बांग्लादेश पाकिस्तान में सहयोगी तलाश रहा है और हिंदुओं पर अत्याचार कर रहा है.
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ अब खुल कर अपने नफरत के एजेंडे पर आ गया है. मोहन भागवत इशारों ही इशारों में हमास और इज़रायल का मुद्दा भी उठाते हैं. कहते हैं कि इसका नुकसान सभी को भुगतना पड़ेेगा.
भागवत का कहना है कि दुर्बलता अपराध है, वे कहते हैं कि दुर्बलता अत्याचार को निमंत्रण देना है. देश में दस साल मोदी के शासनकाल के बावजूद भागवत को हिंदू खतरे में नज़र आ रहा है.
मोहन भागवत के लिए दुर्बलता का पैमाना क्या है और किस आधार पर हिंदू समाज में एक दुर्बल और एक सबल जातियों में वे बांट रहे हैं, इस पर मोहन भागवत चुप हैं. साफ है कि भागवत सवर्ण जातियों को सबल मान रहे हैं लेकिन दुर्बल कही जाने वाली जातियों पर सदियों सेे चले आ रहेे सामाजिक अत्याचार को एक सामान्य अन्याय बता रहे हैं. उनका कहना है कि अन्याय की घटनाएं चलती रहती हैं. लेकिन प्रतिकार की घटनाओं को सांस्कृतिक एकात्मता को खंडित करने का षड़यंत्र बताते हैं. मोहन भागवत के लिए हिंदू संस्कृति ब्राह्मणवादी समाज की संस्कृति है. भागवत की सोच इस बात से जाहिर होती है जब वो कहतेे हैं कि दुर्बल की परवाह देव भी नहीं करते.
वे दुर्बलता का जिक्र मुसलमानों के परिप्रेक्ष्य में करते हैं. हिंदू समाज में निचले पायदान पर खड़े बहुजनों का इस्तेमाल करने के लिहाज से एकजुटता का संदेश देते हैं. वो ये कभी नहीं कहते कि जातिगत भेदभाव खत्म कर मानव मात्र से प्रेम किया जाए, और सभी के बीच रोटी-बेटी का रिश्ता कायम किया जाए. सांप्रदायिक हिंसा के आवाहन के लिए हमेशा दुर्बल वर्ग याद आता है. सब जानते हैं कि दंगों में गरीब, दलित-पिछड़ा और आदिवासी ही मारा जाता है.
ब्राह्मणवादी सोच के साथ संघ प्रमुख ये भी बता जाते हैं कि यज्ञ में शेर, हाथी घोड़े के बजाय बकरे की बलि दी जाती है क्योंकि वो कमज़ोर होता है. ये अलग बात है कि हिंदुत्व के नाम पर असामाजिक तत्व घूम-घूम कर मांसभक्षण का आरोप लगा कर मुसलमानों की मॉब लिंचिगं करते हैं. वही बीजेपी बीफ बेचने वाली कंपनियों से सैक़ड़ों करोड़ चंदा लेती है. अब तो बीफ निर्यात और बढ़ाने की योजना है.
वहीं, बीजेपी शासित सरकारों के समर्थन से ऐसे उपद्रवी तत्वों ने आतंक का राज स्थापित कर दिया है. अब भगवा अंगौछा पहन कर पुलिस, पिछड़े, दलित और मुसलमान को डराने-धमकाने और पीटने तक का अधिकार मिल जाता है. हाल ही में तो मॉब लिंचिंग करने वाले ने इस बात का पश्चाताप जताया कि उससे एक हिंदू युवक की हत्या हो गई. यानि मुसलमान की मॉब लिंचिंग न्यायसम्मत और न्यू नॉर्मल बन गई है. दलित-पिछड़ों और आदिवासियों से हिंसा एक सामान्य घटना हो चली है. हिंसकों से उनका पक्ष सुना और पूछा जाने लगा है. वहीं पीड़ित की कहीं सुनवाई नहीं है. लेकिन भागवत चाहते हैं कि असंतोष उकसावे और अलगाव पैदा करने का षड़यंत्र है.
जाने-अनजाने मंत्र विप्लव की बारीकियां बताते हुए भागवत संंघ की रणनीति का ही खुलासा कर गए. उन्होंने कहा कि “इन्वेड द इंस्टीट्यूशन्स” की रणनीति के तहत असंतोष फैलाने वाली शक्तियां शिक्षा जगत में मीडिया और प्रबुद्ध वर्ग में घुसपैठ करती हैं.
सभी जानते हैं कि देश की संवैधानिक संस्थाओं पर कब्जा किसने किया है. आजादी के पहले से ही आरएसएस स्वाधीनता आंदोलन और उदारवादी लोकतांत्रिक ताकतों के खिलाफ झूठे नैरेटिव गढ़ता रहा है और संघ पर ब्रिटिश फौज में भर्ती औऱ मुखबिरी में मदद करने के आरोप लगता रहा है.
वहीं, 2014 में केंद्र की सत्ता पाते ही संघ-बीजेपी की सरकार ने शैक्षणिक जगत और राष्ट्रीय मीडिया को गुलाम बना डाला है. साथ ही लगातार प्रबुद्ध वर्ग और सिविल सोसायटी का इस कदर दमन किया है कि वो किसी सेे छिपा नहीं है.
इस लेख के लिखे जाने के कुछ घंटे पहले ही दिल्ली विश्वविद्यालय के प्राध्यापक और 90 फीसद विकलांग डॉ. जीएन साई बाबा की मृत्यु हो गई, जिन्हें दस वर्षों से अकारण जेल में रखा गया था, क्योंकि वे एक दलित मानवाधिकार कार्यकर्ता थे. उन पर माओवादी होने का आरोप लगाया गया था. लेकिन भीमा कोरेगांव मामले में आखिरकार अदालत को उन्हें निर्दोष माना.
लेकिन 84 वर्ष के समाजसेवी स्टेन स्वामी इस आरोप के साथ इस दुनिया से चले गए. कंंपन रोग से ग्रस्त स्टेन स्वामी को अदालत पानी पीनेे के लिए सिपर मुह्य्या नहीं करा सकी. उनकी मौत के बाद यलगार परिषद के आरपियों की सूची से उनका नाम हटाए जाने की याचिका पर सुनवाई से पिछले 31 महीनों में मुंंबई हाईकोर्ट की तीन पीठ ने अपने को अलग कर लिया.
मोहन भागवत अपने भाषण में बार-बार संविधान का जिक्र करते हैं. संघ नेताओं द्वारा पिछले दस सालों में संविधान को निशाना बनाने की वजह से मोहन भागवत ये भरोसा दिलाने का पाखंड करते हैं कि वो संविधान में विश्वास करते हैं. आजादी के बाद 52 साल तक संघ कार्यालय पर तिरंगा न फहराने के साथ ही संविधान को हमेशा आयातित बता कर नकारा गया. यही नहीं, पिछले कुछ वर्षों में संविधान बदलने की ज़रूरत का भी विमर्श चलाने की साजिश हुई. लेकिन विरोध के चलते मुहिम रोकनी पड़ गई.
सच्चाई तो ये है कि आरएसएस ने सोची-समझी साजिश के तहत हर संंवैधानिक संस्था और उस पर काबिज पदाधिकारियों को पिट्ठू बना डाला है. लिहाजा न्याय पाने के लिए जगह-जगह बिखरे हुए प्रतिरोध की घटनाएं सामने आ रही हैं.
मोहन भागवत इन विरोध के प्रयासों को असंंवैधानिक मानते हैं. उन्होनें अपने भाषण में संविधान स्वीकार किए जाने से एक दिन पहले यानि 25 नवंबर, 1949 को डॉ. अंंबेडकर के भाषण “ग्रामर ऑफ अनार्की” का हवाला देते हुए मानवाधिकार संघर्षों का विरोध किया. जबकि डॉ. अंबेडकर ने सामाजिक और आर्थिक न्याय के लक्ष्य पाने के लिए संवैधानिक तरीके से आंदोलन का समर्थन किया था. अलबत्ता असंवैधानिक तरीकों का विरोध ज़रूर किया था.
सच्ची बात तो ये है कि आरएसएस ब्राह्मणवादी-मनुवादी व्यवस्था को बनाए रखने के लिए संविधान और आरक्षण को अंदर ही अंदर अस्वीकार करता है. छल-छद्म से आरक्षण खत्म किया जा रहा है. लेकिन संविधान बदले बगैर दमित-वंचित समाज के अधिकारों को छीना नहीं जा सकता. क्योंकि संविधान दलित-पिछड़ा वर्ग और आदिवासियों को उनके अधिकारों और समान अवसरों की गारंटी देता है. हीं, राहुल एक कदम आगे जा कर जाति-वर्ग के अनुपात में संसाधन और अवसरों के बंटवारे की बात कर रहे हैं.
साफ है कि मोहन भागवत राहुल गांधी के नेतृत्व में चल रहे सामाजिक-आर्थिक विषमता दूर करने के संघर्ष और जाति-जनगणना को लेकर चिंतित है और संकेतों में धमकी दे रहे हैं. राहुल गांधी के लिए पद्म व्यूह रचा जा रहा है. मोहन भागवत ने कहा है कि मंत्र-विप्लव केे इन प्रयासों को समय रहते रोकना होगा. भागवत सीमावर्ती राज्यों में चल रहे आंदोलनों को भी इसी विदेशी षड़यंत्र का हिस्सा बताते हैं. वे कहते हैं कि सांस्कृतिक एकात्मता के अधिष्ठान के आधार को नष्ट करने के प्रयासों को रोकना होगा.
संघ-बीजेपी 2024 में मिली हार के बावजूद “हिंंदू खतरे में है” नैरेटिव दोबारा चलाने का प्रयास कर रही है. उसे महसूस हो गया है कि जाति जनगणना से उस दलित-पिछड़े वर्ग में चेतना का विस्फोट होगा, जो मंडल आयोग के बाद जागरूक हो गई थी. वो संसाधनों और अवसरों पर अपना हिस्सा मांगेगी.
इसीलिए आरएसएस अब हर जाति वर्ग के नेतृत्व और उनकी अगुआई में चलने वाली संस्थाओं पर कब्ज़ा करनेे की फिराक में है. मोहन भागवत कहते हैं कि “ये सब जातिवर्ग के मुखिया लोग हैं, ये लोग खंड स्तर पर, ब्लॉक स्तर पर एकत्रित हैं, और आपस में बताएं कि अपनी जाति के उत्थान के लिए उनको समय के हिसाब से ठीक प्रकार का प्रबोधन, क्या क्या खतरे हैं समाज-जीवन में इससे अपने को कैसे बचाना है. इसके बारे में जानकारी, देश-दुनिया में क्या चल रहा है, इसकी जानकारी,ये हम अपने समाज में कैसे देते हैं,”
कुल मिला कर आरएसएस दलित-पिछड़ा और आदिवासी वर्ग की एकता से खतरा महसूस कर रहा है. लिहाजा अपने खतरे को हिंदुओं को लिए खतरा बताया जा रहा है. सच्चाई तो ये है कि राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ संसाधनों और अवसरों पर सदियों से अधिकार जमाए वर्ण व्यवस्था की पोषक है. इस वर्ग को और ताकत देने के लिए मनुसंहिता को समाज व्यवस्था का आधार ग्रंथ मानता है. दलित-पिछड़े हिंदुत्व की राजनीति करने वाली बीजेपी के लिए आज भी सत्ता की डोली उठाने वाले कहार हैं. संघ-बीजेपी नेताओं के बच्चे देश में अंग्रेजी स्कूलों में और विदेशों में आधुनिक शिक्षा ग्रहण करते हैं. जबकि ये दमित-वंचित समाज हिंदुत्व की धर्म ध्वजा लिए अशिक्षा और बेरोजगारी की कांवर उठाए भटकने को अभिशप्त है.
शिक्षा जगत में संघ पूरी तरह काबिज हो गया है. पाठ्यक्रम बदला जा रहा है. तर्क और वैज्ञानिकता की जगह आस्था और श्रद्धा ने ले ली है. छात्रों में असहिष्णुता पैदा की जा रही है. कई सैनिक स्कूलों पर संघ का कब्ज़ा हो चुका है.
लेकिन अशिक्षा, बेरोजगारी,भ्रष्टाचार की बात उठाने को वे असंतोष उकसाने वाला और यहां तक कि अलगाववादी कदम मानते हैं. समाज-प्रशासन में सुधार के बजाय मोहन भागवत दमन की जरूरत बताते हैं. वहीं मोबाइल देखने-पढ़ने वालों को संस्कारच्युत मानते हैं. इसपर रोक लगाने के लिए कानून लाने की भी खुल कर हिमायत करते हैं. अपने भाषण में खुल कर कहते हैं कि हर व्यक्ति को विचारवान होने की जरूरत नहींं है. क्योंकि सभी में इतनी क्षमता नहीं होती है. लिहाजा वो मुहिम चला कर महापुरुषों, संस्थाओं के जरिए आदर्शों की सीख देने की बात करते हैं. जाहिर है कि संघ को चिंतनशील और सवाल पूछने वाला व तर्क करने वाला समाज नहीं चाहिए. ये काम संघ का है. व्हॉट्सअप यूनिवर्सिटी से देश में नफरत का बाज़ार फैलाने में कामयाबी न मिलने पर अब संघ तय करेगा कि क्या पढ़ा जाए, क्या देखा जाए.
मनुवादी अहंकार संघ-बीजेपी नेताओं के सिर चढ़ कर इस कदर बोल रहा है कि संसद में अनुराग ठाकुर राहुल गांधी सेे उनकी जात पूछ रहे हैं. और तो और देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी लोकसभा अध्यक्ष द्वारा कार्यवाही से निकाले जाने के बावजूद अनुराग ठाकुर का ये वीडियो सोशल मीडिया पर शेयर कर रहे हैं.
मोहन भागवत की चिंता ये है कि राजनीति का आने वाले दौर दमित-वंचित वर्ग के अधिकारों के लिए संंघर्ष वाला दौर होगा. लिहाजा संघ समयपूर्व ऐसी कोशिशों पर शिकंजा कसने की तैयारी में हैं.
भागवत के शब्दों मेें “एक ऐसा राष्ट्रीय नैरेटिव चलाना पड़ेगा, उसके लिए एक योजना कानून संविधान की मर्यादा में रहते हुए अपने सांस्कृतिक अधिष्ठान पर हमको इसकी योजना बनानी पड़ेगी, क्योंकि समाज को सुरक्षित रखने के लिए इसी का उपयोग होगा.”
मोहन भागवत प्रतिपक्ष पर इशारों ही इशारों में अलगाववाद फैलाने का आरोप लगाते हैं. जाहिर है कि संंघ-बीजेपी की मोदी सरकार आने वाले वक्त में अपने विरोधियों पर दमनकारी तरीके अपनाने की तैयारी में है. वे कहते हैं कि ट्रैफिक जाम से भी असंतोष होता है.
यानि संघ परिवार को मोदी सरकार का विरोध बर्दाश्त नहीं है. बल्कि वो कानून ला कर अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का गला घोंटने की तैयारी में है. मोहन भागवत संस्कारों के क्षरण की बात यूं ही नहीं करते. वे कोलकाता के आरजी कर अस्पताल में बलात्कार की घटना का जिक्र छेड़ विपक्षी सरकारों पर हमला बोलते हैं. वे अराजनैतिक दिखने की कोशिश करते हुए राजनीति करते साफ नज़र आते हैं. मोहन भागवत धृतराष्ट्र बन जाते हैं. उन्हें यूपी, एमपी, ओडिशा, राजस्थान समेत बीजेपी शासित राज्यों में महिलाओं के प्रति अत्याचार नज़र नहीं आते. वे दुर्बल हिंदू को बताते हैं कि एक द्रौपदी के चीरहरण से पूरी महाभारत और सीता हरण से पूरी रामायण हो गई थी. वे बताते हैैं- पराई स्त्री माता के समान है.
भागवत को मणिपुर में चीरहरण की गई सैनिक की पत्नी समेत दो महिलाओं से सड़क पर सामूहिक बलात्कार पर लज्जा नहीं आई. भागवत को बिलकीस के बलात्कारियों की समयपूर्व रिहाई और सम्मान की घटनाओं पर आंख नहीं झुकी.
कहना न होगा कि बलात्कार को राजनीतिक हथियार मानने वाली विचारधारा को कठुआ में आठ साल की बच्ची से दुष्कर्म करने वालों के पक्ष में तिरंगा यात्रा निकालने में गर्व महसूस होता है. वहीं, गौरी लंकेश के हत्यारोपियों का भगवाधारियों के द्वारा सम्मान पर भी भागवत आंखें मूद लेते हैं.
मोहन भागवत गणेश विसर्जन के समय पथराव की घटनाओं से आहत हैं. वे कहते हैं कि ऐसी स्थिति में प्रशासन के आने के वक्त तक समाज को भुगतना पड़ता है. इसलिए समाज को तैैयार रहना चाहिए. गुंडागर्दी नहीं चलने देनी चाहिए. प्रतिहिंसा को सही ठहराते हुए भागवत यहां तक कह जाते हैं कि अपना और अपनों की रक्षा मूल अधिकार है. इसके लिए सजग रहना होगा, सन्नद्ध भी रहना पड़ सकता है. वो कहते हैं कि “ये सारा वर्णन किसी को लड़ाने के लिए मैं नहीं कर रहा हूं,डराने के लिए भी नहीं कर रहा हूं,परिस्थिति है.”
यहां गौर करने वाली बात ये है कि मोहन भागवत अपने स्वयंसेवकों को धर्म के आधार पर ध्रुवीकरण तेज़ करने का संदेश दे रहे हैं. लेकिन समरसता और सद्भाव की चाशनी में लपेट कर परोसा जा रहा है. भागवत अपने भाषण के अंत में वे बताते हैं शताब्दी वर्ष में संघ अब समाज के दलित-पिछड़े और आदिवासी वर्ग में अपनी पकड़ बनाने के अभियान चलाएगा. आरएसएस को सबसे बड़ा खतरा राहुल गांधी की जातिजनगणना और हिस्सेदारी न्याय से नज़र आ रहा है. 2025 विचारधाराओं के संघर्ष का निर्णायक वर्ष साबित होने वाला है.