बहराइच सांप्रदायिक हिंसा के राजनीतिक सबक और मीडिया की भूमिका

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सौवें साल में प्रवेश के साथ देश में नफरत के बाज़ार में एक नया ऊबाल आ गया. विजयादशमी पर संघ प्रमुख मोहन भागवत ने मीडिया के लिए अलग और स्वयंसेवकों के लिए गूढ़ार्थों में संदेश दिया. मोहन भागवत ने अपने संदेश में भारतीय संस्कति की विविधता और हिंदू धर्म की आध्यात्मिक परंपरा का मुलम्मा चढ़ाया. वहीं अहिंसा को समाज की दुर्बलता मानते हुए और कानून के राज में विश्वास की जगह आत्मरक्षा में सतर्क और सन्नद्ध रहने संदेश दिया. भागवत के संदेश का असर अगले ही चौबीस घंटों में नज़र आने लगा.

13 अक्टूबर को उत्तर प्रदेश में बहराइच डीजे पर भड़काऊ गाना बजाते हुए मुस्लिम आबादी के सामने से एक जुलूस निकला, आपत्ति जताने के बाद हंगामा शुरू हो गया. भीड़ में से राम गोपाल मिश्रा आरोपी के घर पर चढ़ गए और उनका झंडा उतार कर भगवा झंडा लहराना शुरू कर दिया. आरोप है कि इसके बाद राम गोपाल की आरोपियों ने करीब से गोली मार कर हत्या कर दी. इस वारदात के बीच पुलिस कुछ भी करने से नाकाम रही या उसे करने नहीं दिया गया, ये जांच का विषय है. ये भी कहा जा रहा है कि इस साल धार्मिक जुलूस के वक्त पुलिस बंदोबस्त हर बार के मुकाबले काफी कम था. बहरहाल राम गोपाल की पत्नी रोली अस्सी दिन में ही विधवा हो गई.

लेकिन सियासत पर सिंदूर चढ़ गया, सधवा हो गई सियासत.. उपचुनाव में बीजेपी को सत्ता डोली में बैठ कर आती नज़र आई. राजनेताओं के लटके हुए चेहरों पर रौनक लौट आई. उनके बंगलों पर चहल-पहल बढ़ गई. उपचुनाव से पहले मुख्यमंत्री योगी ने अपने भाषण में कहा था कि बंटोगे तो कटोगे. योगी की वाणी में सुरसती का वास था या असामाजिक तत्वों ने इसका अपने तरीके से अर्थ निकाल लिया, ये संयोग है या प्रयोग, ये भी जांच का विषय है.

सैनिक हिंदुत्व के सिद्धांत पर चलने वाला आरएसएस शताब्दी वर्ष में अपने हिंदुत्ववादी एजेंडे को पूरा कर लेने का मंसूबा पाले हुए है. मोहन भागवत ने इस विजयादशमी पर संघ की 99वीं जयंती के मौको पर नागपुर में अपने भाषण में कहा कि “कट्टरपंथ को उकसा कर उपद्रव किए जाते हैं”.

प्रतिपक्ष के खिलाफ कहे गए इन शब्दों में सांप्रदायिक हिंसा और नफरत का बाज़ार तैयार करने की संघ की रणनीति और कार्यशैली का परिचय मिलता है. सांप्रदायिक हिंसा के पीड़ितों को न्याय देने की मांग करने और राज्य-प्रशासन की भूमिका पर सवाल उठाने पर प्रतिपक्ष को मोहन भागवत निशाने पर ले रहे हैं और खुल कर राजनीति कर रहे हैं.

पिछले दस वर्षों में “कट्टरपंथ को उकसा कर उपद्रव” के अनेकों उदाहरण सामने आए हैं. मस्जिदों के सामने जा कर हनुमान चालीसा का पाठ, अल्पसंख्यकों के खिलाफ तैयार कराए गए मां-बहन की गालियों वाले गीत डीजे पर बजाना, हाथों में लहराते हथियार, मस्जिदों पर चढ़ना और मुस्लिम बस्तियों की तरफ पथराव, कभी गौरक्षा के नाम पर तो कभी फ्रिज में रखे कथित बीफ को लेकर मॉब लिंचिंग की सैकड़ों घटनाएं इस बात की तस्दीक करती हैं.

लेकिन शायद ही किसी मंदिर के प्राचीर पर चढ़ कर झंडा फहराने, या मंदिर के सामने हथियार लहराने और मां-बहन की गालियों वाले गानों का डीजे बजाने की घटना सामने आई है,

राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ और भारतीय जनता पार्टी ने और यहां तक कि देश के प्रधानमंत्री होने के बावजूद नरेंद्र मोदी ने इन उपद्रवियों को एक बार भी सख्त चेतावनी देना तो दूर, विरोध तक नहीं जताया. बल्कि हिंदुत्ववादी और प्रशासन पीड़ितों को तब तक उकसाते रहे जब तक कि वो प्रतिरोध न जाहिर कर देते. ये संघ का राजनीतिक शिकार का बिल्कुल वैसा ही तरीका है, जैसे जंगल में लाव-लश्कर के साथ जा कर हांका लगा कर किसी जंगली जानवर को डरा कर बाहर निकलने से मजबूर करना और फिर उस पर निशाना साधना. हिंसा की शुरुआत असामाजिक तत्व करते हैं, फिर प्रशासन की भूमिका अहम हो जाती है. आरोपियों का एनकॉउंटर करना, उनके घर गिरा कर हिंदू समाज को खुश करना, मंत्रियों का सीना ठोंकना और खुदको महंगाई-बेरोजगारी के मारे हिंदुओं के हितों का चैंपियन साबित करना.

मुस्लिम बहुल आबादी में डीजे, बड़ी-बड़ी घूमती लाइट्स, डीजे की तेज़ आवाज़ में बजते भड़काऊ गाने, भगवा गमछा डाले सैकड़ों हुड़दंगी और नामचार को अपाहिज सी दिखने वाली पुलिस अल्पसंख्यकों में भय पैदा करने के भेजे जाते हैं. इस दबाव के असर में किसी अल्पसंख्यक युवा की प्रतिक्रिया का इंतज़ार किया जाता है. उसके बाद अल्पसंख्यकों केे घर औऱ दुकानों पर हमला बोला जाता है, शहर भर में आगजनी होती है, हिंसक हिंदुत्व का उबाल उतरने पर पुलिस आती है. जो कानून-व्यवस्था बनाए रखने से आगे जा कर प्रतिशोध लेती नज़र आती है. निशाने पर होते हैं मुसलमान. इसके बाद प्रशासन का खेल शुरू होता है. सुप्रीम कोर्ट की हिदायत के बावजूद अवैध निर्माण के नाम पर नोटिस चस्पा होते हैं और मुसलमानों के घर गिराए जाते हैं. बीजेपी को लगता है कि भूख औऱ बेरोजगारी का मारा हिंदू इससे खुश हो जाता है.

यूपी,उत्तराखंड, एमपी,छत्तीसगढ़, राजस्थान, बिहार, झारखंड, ओडिशा और पश्चिम बंगाल तक इसी शैली में समाज में एक दूसरे के प्रति घृणा जगाई गई,

कट्टपंथ को उकसा कर बाहर निकालना, उसके नाम पर मुस्लिम प्रताड़ना की परपीड़क प्रवृत्ति से ये मान लेना कि इससे हिंदू समाज खुश होगा शाबाशी देगा, संघ की इस कारस्तानी को देश समझ चुका था. जनता ने बीजेपी को लोकसभा चुनाव में धोखाधड़ी के बावजूद 40 सीट पहले रोक कर संदेश दे दिया था कि कट्टरपंथ को उकसाना भी कट्टरपंथ है. और  किसी भी तरह की सांप्रदायिकता अस्वीकार्य है. लेकिन आरएसएस-बीजेपी को भरोसा है कि इस शैली से उनकी बहुसंख्यक हिंदू समाज में पैठ बढ़ी है.

ऐसा होने के बाद संघ और संघ समर्थित मीडिया मुसलमान को धर्म निरपेक्षता सिखाने लगता है और पुलिस-प्रशासन आरोपियों को या तो एनकॉउंटर या फिर बर्बर पिटाई के बाद दो-तीन साल तक जेल में रखने का इंतज़ाम कर देता है. काम के बोझ की मारी अदालतों के सामने लोकतंत्र को बहुसंख्यकवाद में बदलती बीजेपी की सरकारें अपने इस “बुलडोजर न्याय” को सही ठहराती हैं. बहराइच में भी ठीक यही डिजाइन देखने को मिली.

हरियाणा चुनाव में धोखाधड़ी से हासिल जीत के बाद आरएसएस-बीजेपी के हौसला तेज़ी से बढा है. संघ को लग रहा है कि हरियाणा में कांग्रेस की सरकार न बन पाने के सदमे से ग्रस्त पार्टी के बढ़ते असर को खत्म करने का सबसे बढ़िया मौका है. आरएसएस को सबसे ज्यादा चिंता राहुल के दूसरा गांधी बनने को लेकर है. 1946 से लेकर देश के बंटवारे के बाद तक घृणा-बैर और रक्तरंजित हिंसा के बीच पनपा राजनीतिक हिंदुत्व महात्मा गांधी की हत्या के बाद देश में उपजे दुख-क्षोभ से डर कर बिल में घुस गया था. लेकिन सत्य, अहिंसा, करुणा, और दया भाव के गांधी के संदेश से संघ को आज भी डर लगता है. लिहाजा नफरत के नए ज्वार में राहुल गांधी की मोहब्बत की दुकान को मिटाने की कोशिश जारी है. इसीलिए सोशल मीडिया में आए दिन राहुल गांधी के लिए धमकियां तक दी जा रही है.

बहराइच में हिंसक हिंदुत्व का ये प्रयोग लोकतंत्र की हत्या की सबसे खतरनाक मिसालों में से एक है. सांप्रदायिक हिंसा की सज़ा तीस से ज्यादा मुसलमानों को भोगनी पड़ेगी. लेकिन हिंसा के बाद संघ-बीजेपी-अडानी पोषित मीडिया इस हिंसा के असर को हज़ारों गुना बढ़ा चुका है. हिंदी के कई राष्ट्रीय चैनलों, प्रिंट और ऑनलाइन मीडिया ने राम गोपाल की पोस्टमार्टम रिपोर्ट को लेकर फेक न्यूज़ का ज़बर्दस्त प्रचार-प्रसार किया. चैनलों पर डिबेट कराई गई. पुलिस-प्रशासन, खुफिया तंत्र, के निक्म्मेपन और मुस्लिमों की आबादी के सामने आपत्तिजनक गानें बजाने,उनके घर पर चढ़ाई करने को सही ठहराने के लिए राम गोपाल की हत्या को लेकर उग्र तरीके से वकालत की गई.

हिंदू को और हिंसक बनाने में टीवी मीडिया ने संघ का बहुत सहयोग किया. सूत्रों के मुताबिक पोस्टमार्टम रिपोर्ट में मृतक राम गोपाल के नाखून उखाड़ने, बिजली के झटके देने. और आंखें नोंच लेने जैसी अफवाह फैलाई गई. जिसका पोस्टमार्टम करने वाले डॉक्टर और खुद बहराइच पुलिस ने खंडन किया. लेकिन तब तक सबसे तेज़ चैनल से लेकर सोए हुए चैनल भी चैतन्य हो गए और धर्मनिरपेक्षता को जी भर-भर कर गालियां दी गईं. यही नहीं, सुनियोजित तरीके से पीड़ित पक्ष से जुड़ी खबरों को बहुत तवज्जो नहीं दी गई ना ही बहराइच पुलिस के खंडन को ही प्रमुखता से जगह दी गई.

मोदी की कलई उतरने से धंधे को नुकसान और राष्ट्रीय संपत्ति की लूट बंद होने की आशंका से परेशान अडानी-अंबानी अपने न्यूज़ चैनलों के जरिए संघ-बीजेपी और मोदी सरकार की समाज को बांटने और लोकतंत्र की हत्या की इस राजनीति को सही ठहराने में जुटे हुए हैं. मोदी सरकार की बुलेट या वॉलेट नीति की वजह से मीडिया को संघ के एजेंडे पर चलने में ही समझदारी महसूस हो रही है. लिहाजा पाठक-दर्शक भी घटने लगे हैं, मुनाफे पर भी असर पड़ा है. लिहाजा टीवी, प्रिंट और ऑन लाइन मीडिया बीजेपी की सरकारों के विज्ञापनों की खैरात के लिए कुछ भी करने को तैयार हैं. बीजेपी की सरकारों से विज्ञापन लाने की क्षमता रिपोर्टर-संपादक भर्ती किए जा रहे हैं. तो भारी कीमतों पर हिंसक भाव-भाषा-तेवर वाले एंकर-रिपोर्टर एक दूसरे से छीने जा रहे हैं.

यहं ये बताना ज़रूरी होगा कि संघ प्रमुख मोहन भागवत ने समाज की एकात्मता को नुकसान पहुंचाने वालों के खिलाफ राष्ट्रीय स्तर पर एक विमर्श,एक नैरेटिव चलाने का संदेश दिया था. मीडिया में बैठे स्वयंसेवकों ने आदेश का अक्षर: पालन भी शुरू कर दिया.

संघ-बीजेपी की इस संगठित प्रचार शैली के सामने  असहाय प्रतिपक्ष राहुल गांधी के कंधे पर सवार बैताल की तरह नज़र आता है. एक तरफ मीडिया से जुड़े अपार संसाधन हैं तो दूसरी तरफ कहने तक को एक भी मीडिया मंच नहीं. न्यूज़ चैनलों पर बटेर-मुर्गे की तरह लड़ा कर अपना धंधा चमकाने के लिए विपक्ष के प्रवक्ताओं को बुलाया जाता है. प्रवक्ता ही प्रतिपक्ष की लड़ाई लड़ते नज़र आते हैं, या फिर जिला, ब्लॉक और तहसील का जीवन भर अनजान रह जाने वाला कार्यकर्ता.

बहरहाल राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ अपने स्वयंसेवक प्रधानमंत्री की छद्म और कुटिल राजनीति को लेकर अंदर ही अंदर बेहद प्रसन्न है. 2024 के आम चुनाव के बाद मोदी.30 सरकार बनने के बावजूद दक्षिणपंथी खेमें में छाई मुर्दानगी छंट गई है. हरियाणा में जीत का जश्न मनाने की हिम्मत ना जुटा पाने वाली बीजेपी के नेताओं के चेहरे पर कानों तक फैली मुस्कुराहट शपथ ग्रहण में नज़र आई है.

राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ इसे मोहब्बत की दुकान पर नफरत के बाज़ार की जीत की तरह देख रहा है. उसे लग रहा है कि विपक्ष अवसादग्रस्त है, मीडिया और चुनाव आयोग समेत संवैधानिक संस्थाएं मुट्ठी में हैं, ऐसे में शताब्दी वर्ष में संघ के एजेंडे को पूरी तरह लागू करने के लिए कोई कोर-कसर नहीं छोड़ना चाहता.

सच्चाई ये है कि पिछले दस वर्षो में राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ का मुखौटा पूरी तरह उतर चुका है, 2024 केआम चुनाव में नरेंद्र मोदी का नकाब भी जनता ने नोंच लिया है. भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस इसी जनभावना की अगुआई कर अपनी खोई हुई ज़मीन वापिस हासिल कर चुकी है. अब वो तेज़ी से संघ-बीजेपी को देश से बेदखल करने की तैयारी कर रही है.

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