प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने लोकतंत्र को चुनौती दी है, संविधान को चुनौती दी है और न्यायपालिका को चुनौती दी है. यही नहीं उन्होंने अपने भक्त गोदी मीडिया को सांप्रदायिकता फैलाने वालेअपने झूठ को प्रचारित-प्रसारित करने के लिए उकसाया है. गुजरात के आणंद में प्रचार करते हुए पीएम मोदी ने कहा हैै कि इंडिया गठबंधन के एक नेता ने मुसलमानों से वोट जिहाद करने को कहा है. हमने लव जिहाद सुना था, लैंड जिहाद सुना था और अब वोट जिहाद सुन लिया.
दो चरणों के चुनाव केे बाद हताश नज़र आ रहे प्रधानमंत्री मोदी के लफ्जों में नफरत और फिरकापरस्ती का गाढ़ा रंग चढ़ने लगा है. सभी जानते हैं कि वो समाजवादी पार्टी की तीस साल की युवा नेता मारिया आलम के बयान का जिक्र कर रहे थे. मारिया आलम कांग्रेस नेता सलमान खुर्शीद की भतीजी हैं. मारिया आलम की यूपी में सपा के चुनाव प्रचार के दौरान कही गई बात मोदी जी के लिए संजीवनी बन गई है. लेकिन सवाल ये है कि मारिया आलम के सांप्रदायिक बयान के बहाने देश के प्रधानमंत्री को सांप्रदायिकता फैलाने का लाईसेंस आखिर किसने दिया? यही है पीएम मोदी की लोकतंत्र, संविधान और न्यायपालिका को असली चुनौती.
सवाल येे भी है कि पीएम मोदी को मारिया से सियासत सीखने की ज़रूरत क्यों पड़ी. देश जानना चाहता है कि कल तक सबका साथ, सबका विकास, सबका विश्वास कहने वाले मोदी देश के प्रधानमंत्री हैं या मारिया आलम की पाठशाला में फिरकापरस्ती का सबक सीखने वाले मोदी.
पीएम मोदी सांप्रदायिक उन्माद पैदा करने के लिए अब किसी भी हद तक देश को ले जाने पर आमादा दिखाई पड़ रहे हैं.उन्होंने कांग्रेस पर मुस्लिम वोट बैंक पर पालने-पोसने का आरोप लगाया.पीएम मोदी का संतुलन इस कदर गड़बड़ा गया है कि वो अब अनर्गल प्रलाप करते नज़र आते हैं. वे कहते हैं कि
“मोदी के आने से पहले भारत में 2 संविधान, 2 झंडे और 2 प्रधानमंत्री थे”
प्रधानमंत्री मोदी का ये बयान उलटबांसी की तरह है. ये साफ नहीं है कि दस साल से देश में सरकार चलाने के बाद पीएम मोदी आखिर कहना क्या चाहते हैं. लेकिन यहीं तक नहीं रुके, पीएम मोदी चुनाव में पाकिस्तान को ले आए. उन्होंने कहा कि कांग्रेस मर रही है तो पाकिस्तान रो रहा है. वो आगे कहते हैं कि पाकिस्तानी नेता कांग्रेस के लिए दुआ कर रहे हैं. हम तो जानते ही हैं कि पाकिस्तान कांग्रेस का मुरीद है.
जाहिर हैै कि वो पत्रकार से नेता बने पाकिस्तान के फवाद चौधरी के बयान का जिक्र कर रहे हैं, जिसने हाल ही में कांग्रेस नेता राहुल गांधी की तारीफ की है. फवाद चौधरी ने पाकिस्तानी फौज के डर से इमरान खान की पार्टी छोड़ दी थी और वो पाकिस्तानी फौज का पिट्ठू माना जाता है. लेकिन अगर पाकिस्तान से इतना ही परहेज है तो सवाल ये है कि सारे डिप्लोमेटिक प्रोटोकॉल को बलाए ताक रख कर प्रधानमंत्री बनते ही मोदी एसपीजी के मना करने के बावजूद अपने जहाज से नवाज शरीफ की बेटी की शादी में उनके घर रायलविंड पैलेस बिरयानी खाने क्यों पहुंच गए थे.
नरेंद्र मोदी का राजनीतिक दीवालियापन इससे ही जाहिर होता है कि दस साल तक देश के प्रधानमंत्री होनेे के बावजूद उनके पास मतदाताओं को बताने के लिए कुछ नहीं है. कहां गया वो अपनी अगली सरकार के सौ दिन का रोडमैप, जिसका जिक्र पहले चरण के चुनाव प्रचार में सीना ठोंक कर मोदी कर रहे थे.
हालात ये है कि पीएम मोदी को चुनाव में अपना और अपनी पार्टी का सियासी वजूद बचाए रखने के लिए कभी मारिया आलम तो कभी फवाद चौधरी के बयानों की बैसाखी का सहारा लेना पड़ रहा है. राहुल गांधी की मुहब्बत की दुकान से लड़ने के लिए मोदी नफरत का बाज़ार फैलाने में जुटे हुए हैं.
दूसरे चरण के चुनाव के बाद से ही पीएम मोदी कांग्रेस के हिस्सेदारी न्याय और जाति जनगणना से डरे हुए हैं. एक डरे हुए आदमी की तरह वो एक ही बात को तीन तरीके से कह कर तीन चुनौतियां बता रहे हैं. कांग्रेस को दी इन तीन चुनौतियों का लब्बोलुबाब ये है कि कांग्रेस सरकार में आने पर एससी-एसटी और ओबीसी कोटे में से मुसलमानों को आरक्षण देना चाहती है. और मेरे जीते जी ये नहीं होने दूंगा.
अव्वल तो कांग्रेस ने अपने मैनीफेस्टो में कतई ये नहीं कहा है कि आरक्षण में से मुसलमानों को कोई हिस्सा दिया जाएगा. ऐसे में लिख कर देने की चुनौती बेमानी है. पीएम मोदी अगर कांग्रेस के न्याय पत्र को शपथ पत्र मान कर ही अध्ययन कर लें तो उनकी शंकाओं का समाधान हो जाएगा. अगर नहीं तो कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे ने मिलने का समय मांगा है. लाइव टीवी कैमरे के सामने दोनों बैठ कर शास्त्रार्थ कर सकते हैं. लेकिन चुनौती तो बहाना है, पीएम मोदी का मकसद मुसलमान का मुद्दा उठाना है. और देश में साप्रदायिक ध्रुवीकरण करना है.
अगर मुसलमानों से इतना ही बैर है तो पीएम मोदी ये क्यों नहीं बताते कि उन्होंने गुजरात में मुख्यमंत्री पद पर रहते हुए मुसलमानों की सत्तर जातियों को ओबीसी कोटे से आरक्षण देने का दावा क्यों किया था. हालांकि उन्हीके ईको सिस्टम के मुताबिक उन्होंने सिर्फ पहले से चले आ रही मुस्लिम जातियों को आरक्षण दिया है, नाकि नई मुस्लिम जातियों को सूची में जुड़वाया है.
कांग्रेस महासचिव जयराम रमेश ने कांग्रेस को चुनौती के जवाब में पूछा है कि क्या पीएम मोदी ये बताएंगे कि वो आरक्षण की पचास फीसदी की सीमा खत्म करने के लिए तैयार हैं.?
सवाल ये भी है कि पीएम मोदी क्या जातिजनगणना कराने को तैयार हैं.
जिस तरह पीएम मोदी कांग्रेस और इंडिया गठबंधन पर हमले कर रहे हैं उससे जाहिर होता है कि वो दिल से मान चुके हैं कि अबकी बार कांग्रेस सरकार.
प्रधानमंत्री मोदी उसी से ठंडा, उसी से गरम करने की फूंक मारना जानते हैं. बांसवाड़ा में रैली करते हुए पीएम मोदी ने पहली बार मुसलमानों को आरक्षण देने का कांग्रेस पर आरोप लगाते हुए राजस्थान में सांप्रदायिक ध्रुवीकरण कर वोट बटोरने की कोशिश की. ठीक उसके अगले ही दिन पीएम मोदी यूपी के मुस्लिमबहुल अमरोहा में थे, तो उनका मिज़ाज गंगोजमनी हो चुका था. मौकापरस्ती की इससे बड़ी मिसाल और क्या हो सकती है.
क्या पीएम मोदी ये बताएंगे कि
वतनपरस्त गरीब मुसलमानों से इतनी नफरत और खाड़ी देेशों के दौलतमंद शेखों से इतनी मुहब्बत क्यों हैं?
पीएम मोदी शेखों के समाने अलग तरीके से पेश क्यों आते हैं?
या फिर यूूनाइटेड अरब अमीरात ने अडानी के धंधे में 2 बिलियन यूएस डॉलर का निवेेश वजह है ?
या फिर दुनिया की दूसरे नंबर की सऊदी अरेबिया की कंपनी आरामको से अरबों डॉलर के निवेश के लालच में सऊदी प्रिंस मोहम्मद बिन सलमान का दस्त-बोसा लिया जा रहा है?
कुवैती सरकार के अडानी समूह में अरबों के निवेश की वजह से क्या पीएम मोदी के मुंह में मिस्री घुल जाती है?
या फिर मुंबई की गरीब बस्ती धारावी के विकास के नाम पर 12 मिलियन डॉलर के निवेश से 24 मिलियन डॉलर के मुनाफे के लिए बहरीन के शेखों की कंपनी सेकलिंक से ठेका छीन कर अडानी को दिलाने की वजह से अदावत का डर सताता रहता है?
चुनाव के अलगे चरणों में पीएम मोदी का और अधिक सांप्रदायिक चेहरा सामने आने का अंदेशा है. लेकिन वो अभी से देश के लोकतंत्र, संविधान और न्यायपालिका को चुनौती देते नज़र आ रहे हैं. खूंरेज फिरकापरस्ती का माहौल बनाने की उनकी हर कोशिश बेहद डरावनी है. चुनाव आयोग उनके सामने केचुआ है. वहीं विपक्ष को पता है कि सांप्रदायिकता पर ज़रा सा भी सवाल खड़े करने पर मोदी को और हिंसक सांप्रदायिकता फैलाने का मौका मिल जाता है. और भोलाभाला मतदाता अपनी बेबसी,लाचारी,भूख और बीमारी भूल इसी अय्यारी में उलझ कर रह जाता है.
लेकिन एक सवाल ज़रूर बनता है- क्या चुनाव आयोग की मौत हो चुकी है? क्या न्याय की देवी ने सुनना भी बंद कर दिया है? क्या सर्वधर्मसमभाव वाले देश में अब प्रेम,करुणा,दया,ममता,स्नेह जैसे मानवीय मूल्यों की जगह नही बची है? क्या हिंसक हिंदुत्व को सभी संवैधानिक संस्थाओं ने न्यू नॉर्मल मान लिया है?
अगर ऐसा है तो ये चुनाव पाखंड भर हैं, सचमुच लोकतंत्र खत्म हो चुका है.
यहां हर घंटे दो नौजवान और हर दिन तीस किसान खुदकुशी कर लेते हैं
साधो, ये मुर्दों का गांव…