कहानी सत्ता के तख्तों की – कथा अन्ध भक्तों की – जन्म
यूं तो भारत में गणतंत्र की स्थापना १९५० में हुई थी और पहले चुनाव १९५२ में सम्पन्न हुए। उस समय स्वतंत्रता आंदोलन में सक्रिय भागीदारी निभाने वाली पार्टी कांग्रेस थी और उसे लगभग ४५ % मत प्राप्त हुए. वर्तमान अंधभक्तों की पैतृक पार्टी भारतीय जनसंघ उस समय ७-९ प्रतिशत पर सिमटी हुई थी. यहां पर मैं उनकी सीट संख्या पर चर्चा नहीं करूंगा क्योंकि यह नम्बर भ्रामक विश्लेषण ही देगा. जहां कांग्रेस ने १९५२ से १९७७ तक लगभग २५ वर्षों तक शासन किया, व उसके उपरांत भी भिन्न-भिन्न अवसरों पर और ३० वर्ष शासन किया, तब यह अंधभक्त विशेषण कभी चर्चा में नहीं आया. यहां तक कि भाजपा के श्री अटल बिहारी वाजपेयी जी के शासन काल में भी ऐसा कोई संदर्भ स्मरण में नहीं आता है.
२०११ के उपरांत जब अन्ना आंदोलन की शुरुआत हुई . २०१२ में निर्भया आंदोलन को बैसाखी बना कर जब उस समय के विपक्ष ने मनमोहन सरकार को बेदखल व बदनाम करने का प्रयास किया. मनमोहन सरकार ने शालीनता से उस राजनीतिक आक्रमण का सामना किया परन्तु वह २०१४ में सरकार बचाने में असफल रहे. यदि यहीं तक बात सीमित रहती तो इसे मात्र पार्टी समर्थन का शिफ्ट होना माना जा सकता था, परन्तु योजना इससे कहीं आगे की थी.
एक दल के आईटी सेल ने जहाँ भ्रामक प्रचार की झड़ी लगा दी, वहीं कई बार यह प्रचार सभ्यता की सीमाओं का उल्लंघन करता रहा. एक राज्य विशेष के शासन माडल की चर्चा निरंतर चलती रही, वहीं हिन्दू धर्म को एक धर्म विशेष के काल्पनिक खतरे से लगातार डराया जाता रहा. यहां तक कि स्वतंत्रता सेनानियों के बारे में कई काल्पनिक कथाओं का संचरण हुआ और उनके काल्पनिक मतभेदों पर भी धर्म का मुलम्मा चढ़ा कर लगातार प्रचारित कियागया. इन सबका यह परिणाम हुआ कि भारत की सरल स्वभाव वाले जनमानस ने धीरे धीरे इसे स्वीकार करना प्रारंभ किया. यह व्हाट्सअप व टीवी के माध्यम से (अधिकांश टीवी मालिकों को सरकार ने अनाप शनाप विज्ञापनों से लगभग खरीद लिया) प्रचारित किया गया और किसी सत्यापन के अभाव में यह मिथ्या प्रचार पल्लवित होता रहा.
इस अतिशय भ्रामक प्रचार ने लोगों को विपक्ष के इस दल के मूल समर्थकों के अतिरिक्त कुछ अन्य लोगों को भी इसका शिकार बनाया जिनके लिए यह भ्रामक प्रचार एक सार्वभौमिक सत्य बन गया. यह अपने नेता द्वारा कहे हर वाक्य को चाहे वह सत्य हो या असत्य, उसको किसी कसौटी पर कसने को तैयार न थे. इस प्रकार के समर्थकों को कालांतर में अन्ध भक्त का नाम दिया गया और इस समूह का उदय हुआ.
मस्तिष्क की अवरुद्धि – अन्ध भक्तों की वृद्धि
इस भ्रामक प्रचार के खण्ड २ में इस प्रचार में वृद्धि करते हुए यह प्रचारित किया जाने लगा कि जो इसका विरोध करेगा वह हिन्दू विरोधी, राष्ट्र विरोधी है. इसने लोगों पर एक ऐसा सामाजिक दबाव डालना शुरू कर दिया कि लोगों में यह जानते हुए भी कि यह प्रचार भ्रामक है, इसका विरोध करने का साहस जाता रहा.
शिक्षित वर्ग ने जहाँ विरोध बंद कर दिया वहीं अल्पशिक्षित वर्ग ने तो इसे इतिहास का वह सत्य मानना प्रारंभ कर दिया जिसे पूर्व की सरकारों ने छिपाकर एक अपराध किया. कुछ ने तो अपअपने इस नेता को भगवान समझना शुरू कर दिया. इस प्रकार उन ३५% समर्थकों में यह धारणा बलवती होती चली गई जिन्होंने सत्य जानने के मार्ग का अनुसरण करने के बजाय अपने मष्तिष्क को ही अवरुद्ध करना उचित समझा.
ये कहां आ गए हम – यूं ही साथ चलते चलते
प्रथम श्रेणी में वह अंध भक्त हैं जो अतिधनाढ्य वर्ग से हैं वे तो हर प्रकार शासन से लाभ लेते रहते हैं, आखिर इलेक्टोरल बांड का चढ़ावा तथा उससे मिले अभयदान का वरदान जो है. यह गैरकानूनी तरीके से व्यवसाय चलाना हो या ऋणमाफी. इनको अंधभक्त की श्रेणी में कदापि नहीं रखा जा सकता है बल्कि ये ज्ञानी भक्त की श्रेणी में हैं तथा कुल जनसंख्या का लगभग २% होंगे। इन अंथभक्तों की विवशता है कि जिसको देवता माना उसकी आज्ञा की अवहेलना कैसे कर दें.
दूसरी श्रेणी मध्यम आय वर्ग की है जो इस अंध भक्ति से सर्वाधिक प्रभावित है. यह वह वर्ग है जो कुल जनसंख्या का लगभग ५-६ % हैं. इनके बच्चे उच्च शिक्षा के लिए विदेश जाने में समर्थ हैं अतः भारत के लगातार गिरते शिक्षा स्तर से इन्हें कोई निराशा नहीं होती. चूंकि यह वर्ग जीवन यापन का किसी तरह इंतजाम करने में समर्थ है अतः यह वर्ग नई एसी गाड़ियों से अभिभूत हो कर इन्हें प्रगति का एक आयाम समझता है. १० वर्षों के भ्रम के पश्चात अब इनकी निद्रा टूटने लगी है. भीषण मंहगाई तथा बेरोजगारी ने इनके सपनों को निराशा के गर्त में डालने का काम किया है। १० वर्ष की भक्ति के कारण अभी भी उम्मीद की आस जगाए बैठे हैं.
तीसरी श्रेणी में वह वर्ग है जो गरीबी रेखा के ऊपर है पर जीवनयापन में संघर्षरत है। इन्हों ने १५ लाख के भ्रम में अपने जीवन को उन्नत बनाने का सपना संजोया था पर इनकी हालत इस कहावत में चरितार्थ होती है कि चौबे जी छब्बे होने गए पर दुबे होकर रह गए. पैसे तो मिले नहीं, रोजगार हाथ से जाता रहा और संतानों की शिक्षा अधूरी रह गई. यह वर्ग भी लगभग १०% जनसंख्या है। आज जो असंतोष दिख रहा है उसमें इस वर्ग का काभी हाथ है। इनके सपने चूर चूर हो गए.
अंतिम श्रेणी में भारत की वह जनता है जो दो वक्त की रोटी को मजबूर है ऐसे लोग अंध भक्त नहीं हैं पर जो भी इनका पेट भरेगा उसकी ये भक्ति करेंगे. फिलहाल ये उसके भक्त प्रतीत होते हैं। ये भी तकरीबन १५% के करीब हैं. नियमित रोजगार ही इनका सपना है और इसकी जुगत में वह दिन रात लगे रहते है.
यह थीं इन ४ श्रेणियों की अपेक्षाएं जिसके सपनों में ये भक्त बने. १० वर्षों में शनैः-शनैः इनको वास्तविकता का एहसास हुआ.
हमने तेरी भक्ति की भरपूर – पर सपने सारे हुए चूर चूर
उपरोक्त श्रेणियों में जहाँ श्रेणी १ इसमें सर्वाधिक लाभ में रहा क्योंकि शासन ने उनके अनाप शनाप ऋण (अनुमानतः १६ लाख करोड़) माफ किए गए. वहीं श्रेणी ३ व ४ को इसके लिए इधर उधर दौड़ लगाने पर मजबूर किया. इसी भांति नौकरियों में कमी, पब्लिक सेक्टर के संस्थानों की बिक्री से नौकरियों में भारी कमी कर बेरोजगारी को बढ़ावा दिया गया.
इसी प्रकार श्रेणी ३ व ४ के युवक जहाँ सेना में भर्ती का आसरा लगाए बैठे थे उन्हें पुरस्कार स्वरूप अग्निवीर जैसी अस्थाई नौकरी, वह भी २५ प्रतिशत लोगों को ही उपलब्ध है, इस योजना ने उनका भी हौसला तोड़ दिया। जले पर नमक ऐसा कि पकौड़े तलने का व्यवसाय बता दिया.
धर्म की अफीम जो चटाई गई , उसका असर तभी तक रहा जबतक पिछली सरकार की नीतियों का असर रहा. जैसे जैसे अर्थ व्यवस्था का ह्रास हुआ इस अफीम का नशा उतर गया। रही सही कसर राम मंदिर के उद्घाटन के बाद समाप्त हो गई क्योंकि लोगों की आकांक्षा पूरी हुई पर उसका खुमार बेरोजगारी क़े दर्द के आगे घुटने टेक गया।
अंत में अन्ध भक्त अपने आप को ठगा महसूस कर रहे है और धीरे धीरे इस शासन को अंगूठा दिखाने में कोई गुरेज नहीं कर रहा है. सभाओं में घटती भीड़ इसका द्योतक है.